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क्षमा पारमार्थिक लाभ से वंचित हो जाते हैं। जिसके द्वारा स्थायी पारलौकिक उन्नति हो सकती है ऐसी आत्म-शक्ति का विषय की प्राप्ति में प्रयोग करना, जो अन्य प्रकार से भी लाभ हो सकता है, विवेक-हीनता और अल्पज्ञता है। यह ऐसा ही है जैसा कि काँच की प्राप्ति के लिये मणि को दे डालना। धैर्य और सन्तोप रखकर, कर्म की सिद्धि-असिद्धि से क्षुभित न होकर, कर्तव्य की दृष्टि से कर्म के करने से कालान्तर में सफलता अवश्य होगी-यही सफलता की कुजो है। . .
क्षमा
दूसरा धर्म क्षमा है जो अहिंसा से भी अधिक व्यापक और उच्च है। अहिंसा पर-पीड़ा देने से निवृत्ति है किन्तु दूसरे के द्वारा अनुचित रूप से पीड़ित अथवा क्षतिग्रस्त होने पर भी, और उसके बदले में हानि करने की शक्ति और अवसर रहने पर भी, हिंसा (हानि ) न करना "क्षमा" है। यथार्थ क्षमा केवल बाह्य हिंसा से निवृत्ति मात्र नहीं है किन्तु अपराध किये जाने पर अभ्यन्तर में न क्रोध करना और न तुमित होना है। साथ ही धैर्य और प्रसन्नता से अपराध-कर्ता के प्रति अभ्यन्तर से विना द्वेप-भाव रक्खे अपराध को सहन करना है। शरीर के कर्म की अपेक्षा मानसिक भावना का प्रभाव कम नहीं है किन्तु अवस्था विशेष में अधिक है। यदि किसी