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धर्म-कर्म-रहस्य उद्वेग बना रहता है। इस प्रकार स्तेय से लाभ के बदले यथार्थ में सांसारिक दृष्टि से भी हानि ही होती है। प्रायः देखने में आता है कि न्यायोपार्जित थोड़े धन से भी सुख शान्ति मिलती है और वह स्थायी रहता है किन्तु अन्यायोपार्जित विपुल धन से शान्ति नहीं मिलती और वह यदि उपार्जन करनेवाले के जीते जी नष्ट न हुआ तो उसके पीछे अवश्य नष्ट होता है जैसा कि लिखा जा चुका है। इसके कारण लोगों को बहुत कष्ट भोगना पड़ता है। जैसे स्तेय करनेवाला अवश्य समयान्त में दरिद्र हो जाता है, उसी प्रकार अस्तेय धर्म का अभ्यास करनेवाला अर्थात् अन्याय के उपार्जन से निवृत्त रहनेवाला कभी न कभी अवश्य धनी और सुखी होता है। यह फल तभी मिलता है जब कि अन्याय से उपार्जन करने का पूर्ण अवसर आने पर भी वह इस लोभ में न पड़े और न्याय से च्युत न हो। योगसूत्र का वचन है-"अस्तेयप्रतिष्ठायाँ सर्वरत्नोपस्थानम्।' अर्थात् अस्तेय धर्म के लाभ से सब प्रकार के रत्न अर्थात् धन (सुख-सामग्री) मिलते हैं। मनु अ० ४ का वचन है
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् । योऽर्थे शुचिहि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥१०६॥
सब शौचों में अर्थ-शौच ( अस्तेय ) को महर्षियों ने श्रेष्ठ कहा है। जो अन्याय से दूसरे का धन लेना नहीं चाहता