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धर्म-कर्म-रहस्य क्रुध्यन्तं न प्रतिकुद्धय दाक्रुष्टः कुशलं वदत् । . सप्तद्वारावकीर्णाञ्च न वाचमनृतां वदेत् ।।
मनुस्मृति, अध्याय ६ दूसरे की कही हुई कठोर वातों को सहन करना चाहिए, किसी का अपमान न करना चाहिए, इस नश्वर देह का आश्रय लेकर किसी से वैर न रखना चाहिए ॥ ४७ ।। क्रोध करनेवाले के ऊपर क्रोध न करना चाहिए, दूसरा कोई दुर्वाच्य कहे तो उसको आशीर्वाद देना चाहिए. और चक्षु आदि पाँच बुद्धीन्द्रिय
और मन तथा बुद्धि इन सातों करके निकली वाणी से असत्य नहीं बोलना चाहिए। और भी कहा है-योनात्युक्तःमाह रुम भियं वा यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात् । पापञ्च यो नेच्छति तस्य हन्तुस्तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् १७ भारत । शान्तिपर्व अ० २६६ । किसी दूसरे से निन्दित होने पर प्रिय अथवा अप्रिय वाक्य का प्रयोग नहीं करे अथवा ताड़ित होने पर धैर्य से सह ले और ताड़ना न करे और हननकर्ता को पाप होवे यह भी इच्छा न करे। ऐसे लोगों की देवगण नित्य चाह करते हैं। महात्मा कबीर का वचन हैजो तोकों काँटा वुवे, ताहि वाय तूं फूल ।
और हंस ने साध्य को ऐसा कहा है• आक्रश्यमानो न वदामि किञ्चित्
क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम् ।