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धर्म का तत्त्व
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से, विहित रीति से, करने से वह यज्ञ अर्थात् ईश्वर सेवा है ( गोता ० १८ श्लो० ४६ ) किन्तु स्वार्थ निमित्त, अविहित, और अन्याय द्वारा करने से वह दुःख और बन्धन का कारण होता है । इन विशेष-धर्मों के सिवा ऐसे भी धर्म हैं जो जन- समाज और उसके विशेष धर्म की भी भित्ति जिनके पालन बिना न सुख से समाज चल सकता और न विशेष-धर्म का उचित पालन हो सकता है । उनके पालन के अभाव में न तो समाज को यथार्थ लाभ हो सकता है और न व्यक्ति विशेष को किन्तु सबों की परस हानि है । ये धर्म ईश्वर के ही दिव्य गुण हैं जिनकी संज्ञा गीता में देवी- सम्पत्ति है (गीता अ० १६ श्लोक १ से ३ तक ) और उनको अभ्यास द्वारा अपने में और दूसरों में भी प्रकाशित करना और करवाना तथा आसुरी - सम्पत्ति (गीता अ० १६ श्लोक ४ और ५ ) जो ईश्वर के दिव्य गुण आदि के प्रकाश में बाधक हैं और सृष्टियज्ञ के विरुद्ध हैं उनका दमन करना सब का परम और मुख्य यज्ञ-धर्म है, क्योंकि इसके द्वारा ईश्वर के प्रादि-सङ्कल्प की पूर्ति होती है। इनको साधारण धर्म कहते हैं जिनका विशेष वर्णन पीछे होगा । इस यज्ञ -धर्म में इन्हीं स्वार्थ-मूलक आसुरी सम्पत्ति का त्याग अथवा बलि करना है, न कि परार्थ-मूलक धर्म अथवा कर्तव्य पालन का । यह स्वार्थभाव -- सृष्टि की भित्ति सर्वत्र - एकात्मभाव का विरोधी है क्योंकि इसके द्वारा
* इस पुस्तक में जहाँ कहीं एकात्म भाव शब्द है वह श्रद्वैत, छत