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धर्म-कर्म-रहस्य सवों से उच्च हैं। प्रत्येक वर्ण अपने अपने स्थान में उत्तम
और आवश्यक है। प्रथम प्राश्रम ब्रह्मचर्य सभी के लिये, अपने अपने धर्म के पालन के निमित्त, आवश्यक गुण और योग्यता की प्राप्ति का साधन है जिसके बाद धर्म का अभ्यास गृहस्थाश्रम से प्रारम्भ होकर संन्यास में समाप्त होता है। ये चार वर्ण और चार आश्रम कदापि किसी समाज-विशेष अथवा उसके व्यक्तियों के स्वार्थ-साधन के लिय नहीं बने, जैसा कि आज-. कल अनेक लोगों की धारणा है। ये केवल विश्व-विराट अथवा राष्ट्र की उन्नति और कल्याण के निमित्त यज्ञ ( त्याग) करने के लिये ही बनाये गये और इस प्रकार अधिक योग्यतावालों के लिये अधिक त्याग का विधान हुआ। ब्राह्मणों का धर्म इस महायज्ञ में मुख्यकर ज्ञान के प्रचार का कार्य हुआ
और इसी निमित्त शिक्षा का दान करना उनका मुख्य धर्म हुआ जिसके लिये किसी रूप में वेतन लेना गर्हित कर्म समझा गया, बल्कि विद्यार्थियों के ठहरने के लिए स्थान का प्रबन्ध करना और उनको अपने गृह में स्थान देना शिक्षक का कर्तव्य हुआ। ब्राह्मण की जीविका के निर्वाह का उत्तम उपाय शिल-वृत्ति रक्सी गई। खेत के काटे जाने पर उसमें गिरे अन्न के गुच्छे को चुनकर उससे निर्वाह करना शिलवृत्ति है । इससे भी उत्तम उञ्छ वृत्ति है जिसमें गुच्छे को न चुनकर केवल अन्न के एक एक दाने के चुनने का विधान है। इन दोनों वृत्तिवालों को अयाचित दान लेने का भी निषेध है। इन दोनों से नीचे वे हुए जो विना