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धर्म-कर्म - रहस्य
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अत
को, जो उसके मस्तक के चारों चोर व्याप्त रहता है, देखकर कह सकते हैं कि उसमें कौन गुण प्रधान है, कौन गुण गाय और कितना दुर्गुण है । वर्णव्यवस्था का यथार्थ अभिप्राय यही घा कि जिस वंश में ब्राह्मण धर्म का पालन होगा वहाँ ब्राह्मण गुणवाले जीवात्मा के जन्म लेने पर उसके गुण के विकास का पूरा अवसर मिलेगा। इसी प्रकार क्षत्रिय-गुणवाले जीवात्मा को क्षत्रिय कुल में, वैश्य को वैश्य और शूद्र को शूद्र में | किन्तु श्राजकल जहाँ ब्राह्मण कुल में ब्राह्मणोचित धर्म का पालन न होकर वैश्य - वृत्ति का पालन होता है वहाँ ब्राह्मण गुणवाले जीवात्मा नहीं जन्म लेते किन्तु ब्राहाण - गुण के अभिलापी वैश्य गुणवाले । एव ऐसे जीवात्मा का शरीर तो ब्राह्मण कुल का है किन्तु भीतर जीवात्मा वैश्य है । यह एक प्रकार का वैषम्य आजकल देखा जाता है । इसी प्रकार यदि किसी शूद्र कुल के लोग उत्तम आचरण करनेवाले और त्यागी हैं तो उस कुल में शूद्र जीवात्मा के बदले ऊँचे वर्ण के जीवात्मा ( जिनकी प्रवृत्ति उनके योग्य नहीं है ) आकर जन्म लेते हैं जिनका बाह्य शरीर यद्यपि शूद्र वर्ण का है किन्तु जीवात्मा शूद्र से ऊँचा है । जिनके दिव्य चक्षु खुले हुए हैं वे उनके तेज का वर्ण देखकर कह सकते हैं कि यह शूद्र शरीर का जीवात्मा ऊँचे वर्ण का है । पूर्वकाल में ऋषि लोग दिव्य चक्षु से देखकर एक वर्ण को ऊपर के वर्ग में अन्तर्भुक्त करते थे और ऊपरवाले को नीचे के वर्ण में भी प्रविष्ट कराते थे ।