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विशेष धर्म
१६ माँगे मिले दान से अपना निर्वाह करते हैं। याचना करके अपनी जीविका निर्वाह करनेवाले की वृत्ति को मृत अर्थात् मुर्दे का निन्दनीय व्यवसाय समझा गया। खेती की जीविका उससे भी निन्दित अर्थात् प्रमृत समझी गई। परोपकार बामगा का मुख्य धर्म हुआ-मनु का वचन है "मैत्री वाहाण उच्यते" अर्थात् परोपकारी ही बाहरण है। इसी प्रकार ज्ञानप्राप्ति, यज्ञ-साधन, दान अर्थात् परोपकार और लोगों की रक्षा के लिये अपने शरीर का भी सुखपूर्वक त्याग करना क्षत्रिय-धर्म है। धर्म की रक्षा, अधर्म का नाश, न्याय, सत्य आदि कल्याणकारी व्यवहार का प्रचार प्रभृति लोकहित के कर्म करना भी उनका कर्तव्य हुआ । वैश्य इस विश्व-विराट राष्ट्र के भण्डारी हुए जिनका मुख्य धर्म अन्न, वन्न, धन आदि राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, न कि केवल अपने लिये जमा करना, है। शुद्र का धर्म शरीर से कार्य कर अन्न आदि जो जीवन की रक्षा के लियं परमावश्यक हैं उनको उत्पन्न करना हुआ। यह वर्णव्यवस्था गुग्ण कर्म के अनुसार हुई और इसमें गुण की अधिकता होने से तरको भी होती थी। गीता का वाक्य है कि "चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागयोः' अर्थात् श्रीभगवान् कहते हैं कि मैंने चारों वर्गों को उनके गुण कर्म के अनुसार बनाया। यथार्थ वर्ण जीवात्मा का आभ्यन्तरिक गुण है और गुणानुसार ही आभ्यन्तरिक तेज का वर्ण (रङ्ग) रहता है। जिनको दिव्य दृष्टि प्राप्त है वे किसी व्यक्ति के तेज के वर्ण