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धर्म का तत्त्व एकमात्र उद्देश्य, जीवात्मा के आज्ञा-पालन और हित-साधन में अनवरत रत रहते हैं जिसकी सिद्धि के लिये एक दूसरे की सहायता कर वे कार्य करते हैं। ऐसा करने से पृथक खार्थ न रखने पर भी समूह के साथ साथ भिन्न भिन्न भाग की स्थायी उन्नति होती रहती है। शरीर के अणु-गण यदि अपनी स्वतन्त्रता और भिन्नता को त्यागकर आपस में के सङ्गठन का विच्छेद कर दें और पृथक तथा स्वतंत्र हो जाये, तो उसी क्षण शरीर नष्ट हो जायगा और पृथक रहने से वे भी उन्नति न कर नष्ट-प्राय हो जायँगे। सङ्गठन के कारण अणुगण शरीर के गुणों का स्वभाव प्राप्त कर क्रमशः उन्नति कर रहे हैं; निम्न श्रेणी के शरीर के अणुगण उत्तम स्वभाव लाभ करने से अपने से उच्च श्रेणी के शरीर में प्रविष्ट होते हैं और उनके स्थान पर नीचेवाले उन्नति कर आ जाते हैं। इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ सङ्गठित रूप में एक न होकर और परस्पर में एक दूसरे को साहाय्य न देकर पृथक भाव से कार्य करें, तब न तो किसी कार्य की सिद्धि होगी और न अन्तरात्मा को लाभ होगा। इसके सिवा इन्द्रियों की भी रक्षा और उन्नति न होकर क्षति होगी। यदि पग के चलने के काम में नेत्र खाई, गड़हे आदि रुकावट को देखकर उनकी सूचना देकर पग को न बचावे तव पग के खाई आदि में गिरने से पग को चोट आने के सिवा नेत्र को भी चोट लगेगी। यदि नेत्र कोई दूर की आवश्यक वस्तु.को देखना चाहे किन्तु पग चलकर वहाँ न जाय तो नेत्र उसको देख