________________ ( xvii ) पूर्व का सिद्ध होता है। किन्तु इसको चतुर्विंशतिस्तव के पूर्व मानने के सम्बन्ध में मुख्य कठिनाई यह है कि इसमें ऋषभ को प्रथम और महावीर को अन्तिम तीर्थकर मानकर प्रथम गाथा में ही वन्दन किया गया है।' अतः यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार के समक्ष चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा उपस्थित थी, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋषभ को प्रथम और महावीर को अन्तिम तीर्थकर मानने मात्र से चौबीस की अवधारणा का समावेश नहीं हो जाता। उत्तराध्ययन में भी महावीर को अन्तिम तीर्थकर के रूप में माना गया है, लेकिन उसमें कहीं भी स्पष्ट रूप से चौबीस की संख्या का निर्देश नहीं है। इस प्रकार स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम की दृष्टि से 'देवेन्द्रस्तव' पर्याप्त प्राचीन स्तर का ग्रन्थ सिद्ध होता है। पूनः 'देवेन्द्रस्तव' को "देवेन्द्रों का स्तव" यदि इस रूप में माना जाय तो यह केवल उसी अर्थ में स्तवन है कि उनकी विशेषताओं का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें यद्यपि इन्द्रों की सामर्थ्य आदि का अतिशयपूर्ण वर्णन है फिर भी इसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि देवताओं की इस समस्त ऋद्धि की अपेक्षा भी तीर्थंकरों की ऋद्धि अनन्तानन्त गुण अधिक है। इससे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ यद्यपि देवेन्द्रों का विवरण प्रस्तुत करता है किन्तु उसका मूल लक्ष्य तो तीर्थंकर की महत्ता को स्थापित करना और उनकी स्तुति करना ही है। नामकरण की सार्थकता का प्रश्न-यद्यपि नन्दी, पाक्षिक-सूत्र आदि में इसका उल्लेख देवेन्द्रस्तव ( देविदत्थओ) के रूप में ही पाया जाता है, "किन्तु यदि हम इसके वणित विषय का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करें तो ऐसा लगता है कि यह 'देवेन्द्रस्तव' के स्थान पर तीर्थकर-स्तव ही है। क्योंकि इसकी ३१०वी गाथा में ऋषिपालित को 'देविंदथयकारस्स वीरस्स' कहा गया है। मूलाचार में तो इसका 'थुदी' के रूप में ही उल्लेख है। यद्यपि इस देवेन्द्रस्तव में देवेन्द्रों का विस्तार से विवरण है, किन्तु 1. "अमरनवंदिए वंदिऊण उसभाइये जिणवारदे वीरवर पच्छिमंते तेलोक्कगुरु गुणाइन्ने" --देवेन्द्रस्तव गाथा-१ 2. सुरगणइड्डि समग्गा सव्वद्धापिंडिया अणंतगुणा / न वि पावे जिण इढि णंतेहिं वि वग्गवग्गूहिं / -देवेन्द्रस्तव गाथा-३०७