________________ ( xv ) तीर्थकरों की अवधारणा के साथ ही हुआ होगा। 'वीरत्थुइ' और 'नमुत्थुणं' में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ इन दोनों में भक्तहृदय अपने आराध्य के गुणों का स्मरण करता है, उससे किसी प्रकार की लोकिक या आध्यात्मिक अपेक्षा नहीं करता है जबकि "चोवीसत्थव" के पाठ में सर्वप्रथम भक्त अपने कल्याण की कामना के लिए आराध्य से प्रार्थना करता है कि हे तीर्थकर देवों! आप मुझ पर प्रसन्न हों तथा मुझे आरोग्य, बोधिलाभ तथा सिद्धि प्रदान करें।' सम्भवतः जैन स्तुतिपरक साहित्य में यहीं सबसे पहले उपासकहृदय याचना की भाषा का प्रयोग करता है / यद्यपि जैनदर्शन की स्पष्टतया यह मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतराग है, अतः वे न तो किसी का हित करते हैं और न अहित ही, वे तो मात्र कल्याण पथ के प्रदर्शक हैं। अपने भक्त का हित या उसके शत्र का अहित सम्पादित करना उनका कार्य नहीं। 'लोगस्स' के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि उस पर सहवर्ती हिन्दू-परम्परा का प्रभाव आया है। लोगस्स के पाठ में आरोग्य, बोधि और निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गयी है। जिसमें आरोग्य का सम्बन्ध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है.। यद्यपि आध्यात्मिक रूप से इसकी व्याख्या आध्यात्मिक विकृतियों के निराकरण रूप में की जाती है तथापि जैन-परम्परा के स्तुति. परक साहित्य में कामना का तत्व प्रविष्ट होता गया है, जो जैन दर्शन के मूल-सिद्धान्त वीतरागता की अवधारणा के साथ संगति नहीं रखता है। इसी संदर्भ में आगे चलकर यह माना जाने लगा कि तीर्थंकर को भकि से उनके शासन के यक्ष-यक्षी (शासन देवता ) प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण करते हैं। फिर शासन-देवता के रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के यज्ञ . और यक्षी की अवधारणा निर्मित हुई और उनको भो स्वतन्त्ररूप से स्तुति की जाने लगी। "उवसग्गहर" प्राकृत-साहित्य का सम्भवतः सबसे पहला तीर्थंकर के साथ-साथ उसके शासन के यक्ष को स्तुति करने वाला काव्य है।' इसमें पार्श्व के साथ-साथ पार्श्व-यक्ष को भो लक्षगा से स्तुति को गयो है। प्रस्तुत स्तोत्र में जहाँ एक ओर पार्श्व से चिन्तामणि कल्प के समान सम्यक्त्व-रत्न रूप बोधि और अजर-अमर पद अर्थात् मोक्ष प्रदान करने की कामना की गयी है, वहीं यह भी कहा गया है कि कर्ममल से रहित 1. उवसग्गहर-स्तोत्र-गाथा 1 से 5 (पंचप्रतिक्रमण सूत्र )