________________ ( xviii ) उसमें एक भी गाथा ऐसी नहीं है, जिसमें देवेन्द्रों को स्तुति की गयी हो। अतः देवेन्द्रस्तव की व्याख्या करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका अर्थ देवेन्द्र की स्तुति न होकर देवेन्द्रों के द्वारा की गयी स्तुति ही माना जाना चाहिए। यदि इसे देवेन्द्रों की स्तुति मानना हो, तो यह केवल विवरणात्मक स्तुति है। देवेन्द्रस्तब के कर्ता-देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में हमें ऋषिपालित का नाम उपलब्ध होता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित एवं महावीर विद्यालय बम्बई से प्रकाशित संस्करण में इस प्रकीर्णक के प्रारंभ में ही "सिरिइसिवालियथेरविरइओ" ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, मात्र यही नहीं उसकी गाथा क्रमांक 309-310 में भी कर्ता का निम्न रूप में निर्देश उपलब्ध है-- (अ) “इसिवालियमइमहिया करेंति जिणवराणं"। (ब) "इसिवालियस्स भई सुरवरथयकारयस्स वीरस्स" / इसमें ऋषिपालित को स्तुतिकर्ता के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया है, अतः ग्रन्थ के आन्तरिक एवं बाह्य साक्षों से यह फलित होता है कि इसके कर्ता ऋषिपालित हैं। यद्यपि डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने अपने 'प्राकृत साहित्य के इतिहास' में तथा देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने 'जैन आगम-साहित्य मनन और मीमांसा' में इसके कर्ता के रूप में 'वीरभद्र का उल्लेख किया है, किन्तु दोनों ने इसके कर्ता वीरभद्र को मानने का कोई प्रमाण नहीं दिया है। संभवतः चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका आदि कुछ प्रकीर्णकों के कर्ता के रूप में वीरभद्र का नाम प्रसिद्ध था, इसी भ्रमवश जगदीश चन्द्र जी ने देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख कर दिया होगा। उन्होंने मूलग्रन्थ की अंतिम गाथाओं को देखने का भी प्रयास नहीं किया। देवेन्द्र मनि शास्त्री ने तो अपना ग्रन्थ जगदीश चन्द्र जैन एवं नेमिचन्द्र शास्त्री के प्राकृत साहित्य के इतिहास ग्रन्थों को ही आधार बनाकर लिखा है इसलिए उन्होंने भी मूल ग्रन्थों को देखने का कोई कष्ट नहीं किया। अतः उनसे 1. ( क ) प्राकृत साहित्य का इतिहास-डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, पृ० 128 (ख) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा-देवेन्द्रमुनि शास्त्री पृ०-४००