Book Title: Charananuyoga Part 2 Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Agam Anuyog Prakashan View full book textPage 5
________________ विद्या के अनुसन्धाता विद्वानों के लिए बहुत महत्व है। इनकी अनन्य श्रुत भक्ति और संयम साधना देखकर अनुयोग कार्य का प्रारम्भ ऐसा कौन होगा जो प्रभावित न हो, श्रमण जीवन की __लगभग आज से ५० वर्ष पूर्व मेरे मन में अनुयोग- वास्तावक श्रमानष्ठा आपकी र वास्तविक श्रमनिष्ठा आपकी रग-रग में समाहित है। वर्गीकरण पद्धति से बागमों का सकलन करने की भावना आपका चिन्तन और आपके सुझाव मोलिक होते हैं। जगी थी। श्री दलसुख भाई मालवणिया ने उस समय गत सात वर्षों से विदुषी महासती डा० मुक्तिप्रभाजी, मुझे मार्ग दर्शन किया, प्रेरणा दी और निःस्वार्थ निस्पृह डा , डा.दिव्यप्रभाजी एवं उनकी साक्षर शिष्या परिवार का भाव से आत्मिक सहयोग दिया। उनकी प्रेरणा व सह- एसा अनुपम सुयाग मिला कि अनुयाग । योग का सम्बल पाकर मेरा संकल्प दृढ़ होता गया और बढ़ता गया । मुझ अता बढ़ता गया। मुझे अतीव प्रसन्नता है कि महासती मुक्तिमैं इस श्रुत-सेवा में जुट गया। आज के अनुयोग ग्रन्थ । प्रभाजी आदि विदुषी श्रमणियों ने इस कार्य में तन्मय उसो बीज के मधुर फल हैं। होकर जो सहयोग किया है उसका उपकार आगम सर्वप्रथम गणितानुयोग का कार्य स्वर्गीय गुरुदेव श्री अभ्यासी जन युग-युग तक स्मरण करेंगे। इनकी रत्नफतेहचन्दजी म. सा. के सान्निध्य में प्रारम्भ किया था। प्रय साधना सर्वदा सफल हो, यही मेरा हार्दिक किन्तु उसका प्रकाशन उनके स्वर्गवास के बाद हुथा। आशीर्वाद है। कुछ समय बाद धर्मकथानयोग का सम्पादन प्रारम्भ अनुयोग सम्पादन कार्य में प्रारम्भ में तो अनेक किया। वह दो भागों में परिपूर्ण हआ। तब तक गणिता बाधाएं आई। जैसे आगम के शुद्ध संस्करण की प्रतियों नुयोग का पूर्व संस्करण समाप्त हो चुका था तथा अनेक का अभाव, प्राप्त पाठों में क्रम भंग और विशेषकर स्थानों से मांग आती रहती थी। इस कारण धर्मकथानु "जाव" शब्द का अनपेक्षित अनावश्यक प्रयोग । फिर योग के बाद पुनः गणितानयोग का संशोधन प्रारम्भ भी धीरे-धीरे जैसे आगम सम्पादन कार्य में प्रगति हुई किया, संशोधन क्या, लगभग ५० प्रतिशत नया सम्पादन बसे-बसे कठिनाइयों भो दूर हई। महावीर जैन विद्यालय ही हो गया। उसका प्रकाशन पूर्ण होने के बाद चरणा बम्बई, जैन विश्व भारती लाडन तथा आगम प्रकाशन नयोग का यह संकलन प्रस्तुत है। समिति ब्यावर आदि आगम प्रकाशन संस्थाओं का यह __कहावत है "श्रेयांसि बहु विघ्नानि" शुभ व उत्तम उपकार ही मानना चाहिए कि आज आगमों के सुन्दर कार्य में अनेक विघ्न आते हैं। विघ्न-बाधाएं मारी उपयोगी संस्करण उपलब्ध हैं. और अधिकांश पूर्वापेक्षा दढ़ता व धीरता, संकल्प शक्ति व कार्य के प्रति निष्ठा शुद्ध सुसादित हैं। यद्यपि आज भी उक्त संस्थाओं के को परीक्षा हैं । मेरे जीवन में भी ऐसी परीक्षाएं अनेक निदेशकों की आगम सम्पादन शैली पूर्ण वंज्ञानिक या बार हुई हैं । अनेक बार शरीर अस्वस्थ हुआ, कठिन जैसी चाहिए वैसी नहीं है। लिपि दोष, लेखक के मतिबीमारियो आई । सहयोगी भी कभी मिले, कभी नहीं, भ्रम व वाचना भेद आदि कारणों से आगमों के पाठों में किन्तु मैं अपने कार्य में जुटा रहा। अनेक स्थानों पर व्युत्क्रम दिखाई देते हैं। पाठ-भेद तो सम्पादन में सेवाभावी विनय मुनि "वागीश" भी है ही, "जाव" शब्द कहीं अनावश्यक जोड़ दिया है जिससे अर्थ वपरीत्य भी हो जाता है, कहीं लगाया नहीं है और मेरे साथ सहयोगी बने, वे आज भी शारीरिक सेवा के कहीं पूरा पाठ देकर भी "जाव' लगा दिया गया है। साथ-साथ मानसिक दृष्टि से भी मुझे परम साता पहुँचा प्राचीन प्रतियों में इस प्रकार के लेखन-दोष रह गये हैं रहे हैं और अनुयोग सम्पादन में भी सम्पूर्ण जागरूकता जिससे आगम का उपयुक्त अर्थ करने व प्राचीन पाठ के साथ सहयोग कर रहे हैं। परम्परा का बोध कराने में कठिनाई होती है। विद्वान खम्भात सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री कांति ऋषि और शान ना चाक्षिा था। प्राचीन जी म. ने मुझ पर जन ग्रह करके व्यावरणाचार्य श्रीमहेन्द्र प आमहन्द्र प्रतियों में उपलब्ध पाठ ज्यों का त्यों रख देना-अडिग REACT पि जी म. को श्रुत-सेवा में सहयोग करने के लिए श्रुत श्रद्धा का रूप नहीं है, हमारी श्रुत-भक्ति श्रुत को भेजा था अतः मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। व्यवस्थित एव शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में है। कभीसम्पादकीय सहयोग कभी एक पाठ का मिलान करने व उपयुक्त पाठ निर्धारण सौभाग्य से इस श्रमसाध्य महाकार्य में आगमज्ञ श्री करने में कई दिन व कई सप्ताह भी लग जाते हैं किन्तु तिलोक मुनिजी का अप्रत्याशित सहयोग मुझे प्राप्त विद्वान अनुसन्धाता उसको उपयुक्त रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। करता है, माज इस प्रकार के आगम सम्पादन को आव.Page Navigation
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