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( ४२ )
नय कहे तेहना नामथी, होये जय जयकार ॥ १ ॥ इति गौव स्वामी केवलज्ञान चैत्यवंदन त्रयम् ॥
॥ श्री पर्युषण पर्वनुं चैत्यवंदन ॥
॥ पर्व पर्युषण गुणनीलो, नवकल्पविहार | चार मासान्तर थीर रहे, ही अर्थ उदार || १ || आषाढ शुद चउदश थकी, संवत्सरी पंचास || मुनिवर दिन सित्तेरमे, पडिक्कमतां चौमास || || २ || श्रावक पण समता घरी, करे गुरुना बहुमान || कल्पसूत्र सुविहित मुखे, सांभळे या एक तान || ३ || जिनवर चैत्य जुहारीए, गुरु भक्ति विशाल || माये अष्ट भवांतरे, वरीए शिव वरमाल ||४|| दर्पणथी निजरूपनो, जुवे सुद्रष्टि रूप || दर्पण अनुभव अर्पण, झान रमण मुनि भूप ॥ ५ ॥ आत्म स्वरुप विलोकतांए, प्रगटयो मित्र स्वभाव।। राय उदायी खामणां, पर्वपर्युषण दाव ॥ ६ ॥ नव बखाण पूजी सुणो, शुकल चतुर्थी सीमा ॥ पंचमी दिन वांचे सुणे, होय विरोधी नीमा ॥ ७ ॥ ए नहीं पर्वे पंचमी, सर्व समाणी चोथे । भव भीरु मुनि मानसे, भाख्युं अरिहा नाये || ८ || श्रुत केवली बयणा सुणी, लही मानव अवतार || श्री शुभवीरने शासने, पाम्या जय जयकार ॥ ९ ॥
॥ बीजुं ॥
॥ श्री श्री पोसणपर्व सेवा, भवीजन सहु हरखी ॥ वेण
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