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(१३५)
॥ स्तवन चोथु॥ ॥ प्रभु तुंहि तुंहि तुंहि तुंहि तुंहि धरतां ध्यानरे ए देशी ॥
॥ विमल गिरिवर शिखर सुंदर, सकळ तीरथ सार रे॥ नाभिनंदन त्रिजग वंदन, ऋषभजिन सुखकार रे ॥ विमळ० ॥१॥ चैत्यतळे वर रुख रायण, सोहे अति मनोहार रे ॥नाभिनंदनतणां पगलां, भेटतां भवपार रे ॥ विमल० ॥२॥ समवसरिया आदि जिनवर, जाणो लाभ अनंत रे ॥ अजित शान्ति चउमास रहिया, इम अनेक महंत रे ॥ विमल० ॥ ३ ॥ साधु सिध्या जिहां अनंता, पुंडरीक गणधार रे ।। शाम्ब ने प्रद्युम्न पांडव, प्रमूख बहु अणगार रे ॥ विमल० ॥ ४ ॥ नेमिजिनना शिष्य थावच्चा, सहस्स परिवार रे ॥ अंतगडजी सूत्र मांही, ज्ञातासूत्र मझार रे ॥ विमल०॥ ॥ ५ ॥ भाव सहित भवी जे फरसे, सिद्धक्षेत्र सुठाम रे ॥ नरक तिर्यग दो निवारे, जपे लाख जिन नाम रे ॥ विमल० ॥ ६॥ रयणमय जे ऋषभ प्रतिमा, पंचसय धनु मान रे ॥ नित्य प्रत्ये जिहां इंद्र पूजे, दुषम समय प्रमाण रे ॥ विमल० ॥७॥त्रीजे भवे जे मुक्ति पहोंचे, भविक भेटे तेह रे ॥ देव सांनिध्य सकळ वंछित, पुरखे ससनेह रे ॥ विमल०॥८॥ एणीपेरै जेहनो सबळ महिमा, कह्यो शास्त्र मझार रै ॥ ज्ञानविमल गिरि ध्यान धरतां, आवागमन निवार रे ॥ विमल० ॥९॥
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