Book Title: Chaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Author(s): Shivnath Lumbaji
Publisher: Porwal and Company
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( २२९ ) पाम्यो प्रभु नरभव छतां रणमां रडया जेवु थयु । धोबी तणा कुत्ता समुं मम जीवन सहु एळे गयुं ॥१८॥ हुं कामधेनु कल्पतरु चिंतामणिना प्यारमा । खोटां छतां झंख्यो घणुं बनी लुब्ध आ संसारमा॥ जे प्रगट सुख देनार रहारो धर्म ते सेव्यो नहि । मुज मूर्ख भाकोने निहाळी नाथ कर करणा कंइ ॥१९॥ में भोग सारा चिंतव्या ते रोगसम चित्या नहि । आगमन इच्छयुं धनतणुं पण मृत्युने पीछयुं नहि ॥ नहि चिंतव्यु में नर्क काराग्रह समी छे नारीओ । मधुबिंदुनी आशामहीं भय मात्र हुँ भुली गयो ॥२०॥ हुँ शुद्ध आचारोवडे साधु हृदयमा नव रह्यो । करी काम पर उपकारना यश पण उपार्जन नव कर्यो । बळी तीर्थना उद्धार आदि के कार्यों नव कयौं । फोगट अरे ! आ लक्ष चोराशीतणां फेरा फर्या ॥२॥ गुरुवाणीमां वैराग्य केरो रंग लाग्यो नहि अने । दुर्जनतणां वाक्यो महीं शांति मळे क्याथी मने ? ॥ तरुं केम हुँ संसार आ अध्यात्म तो छ नहि जरी । तुटेल तळोयानो घडो जळथी भराये केम करी ॥२२॥ में परभवे नथी पुण्य कीधुं ने नथी करतो हजी । तो आवता भवमां कहो क्याथी थशे हे नाथजी ? ॥ भूत भावी ने सांप्रत त्रणे भव नाथ हुं हारी गयो । स्वामी त्रिशंकु जेम हुं आकाशमां लटकी रह्यो ॥२३॥
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