Book Title: Chaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Author(s): Shivnath Lumbaji
Publisher: Porwal and Company
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( २२७ )
आपना ।
घणां ॥
पत्थरथकी पण कठण मारुं मन खरे मरकट समा आ मनथकी हुं तो प्रभु भ्रमता महा भवसागरे पाम्यो पसाए जे ज्ञान दर्शन चरणरुपी रत्न तो दुष्कर ते पण गया परमादना वशश्री प्रभु कहुं हुं खरुं । कोनी कने किरतार आ पोकार हूं जइने करूं ! ||८|| ठगवा विभु आ विश्वने वैराग्यनां रंगो धर्यो । ने धर्मना उपदेश रंजन लोकने करवा कर्या ॥ विद्या भण्यो हुं वाद माटे केटली कथनी कहुं । साधु थइने व्हारथी दांभिक अंदरथी रहुं ॥ में मुखने मेलुं कर्यु दोषो पराया गाइने । ने नेत्रने निंदित कर्यो परनारीमां लपटाइने | वळी चित्तने दोषित कर्यु चिंती नढारं परतणुं । हे नाथ! मारुं शुं थशे चाल्लाक थइ चुक्यो घणुं ॥ १० ॥ करे काळजाने कतल पीडा कामनी बिहामणी । ए विषयमां बनी अंध हं विडंबना पाम्यो घणी ॥ ते पण प्रकाश्यं आज लावी लाज आप तणी कने । जाणो सहु तेथी कहुं कर माफ मारा वांकने ॥ ११ ॥ नवकार मंत्र विनाश कीधो अन्य मंत्री जाणीने । कुशानां वाक्योवडे हणी आगमोनी वाणीने ॥ कुदेवनी संगतथकी कर्मों नकामां आचर्यो । मति भ्रमणथी रत्नो गुमावी काच कटका में ग्रह्मा ॥ १२ ॥
क्यांथी द्रवे । हार्यो हवे ॥७॥
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