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( २०६)
नाम णतां वखाणु ॥ १० ॥ अनेकांत संक्रांत बहु अर्थ शुद्ध, निके शब्द ते ताहरा नाम बुद्ध ॥ निराशी जपे जेह ते सर्व साधु, जपे जेह आशायें ते सर्व काचुं॥११॥ नको मंत्र निवतंत्र निवयंत्र मोटो, जिस्यो नाम ताहरो सम अमृत लोटो ॥ प्रभु नाम तुज मुज अक्षय निधान धरूं चित्त संसार तारक प्रधान ॥ १२ ॥ अनामी तणा नामनो शो विशेष, एतो मध्यमा वैखरीनो उल्लेख ।। मुनिरूप पश्यंति काइ प्रमाणे, अकल अलख तुं इम हुवो ध्यान टाणे ॥ १३ ॥ अनवतारनो केइ अवतार भांखी, घटी तेहनी देवनी कर्म पाखी ॥ तनुग्रह नहीं भूत आवेश न्यायें, प्रथम योग छे कर्म तन्मिश्र पायें ॥१४॥ अछे शक्ति तो जननी उदरें न पेशी, त्तनुग्रहग वली पर अहो न बेशी ॥ तुरंग श्रृंग सम अर्थमां जेह युक्ति, कही सहहि तेह अममाण उक्ति ॥ १५॥ यदा जिनवरें दोष मिथ्यात्व टाल्यो, ग्रहां सार सम्यकत्व निजवान वाल्यो । तिहाथो हुआ तेह अवतार लेखी, जगत लोक उपगार जगगुरु गवेरखी ॥ १६ ॥ अहो योग महिमा जगन्नाथ केरो, टले पंच कल्याणके जग अंधेरो॥ तदा नारकी जीव पण सुख पावे, चरण सेक्वा धसमस्या देव आवे ।। १७ ॥ भजी भोग लै योग चारित्र पाले, धरी ध्यान अध्यात्म घन घाति टाले ॥ लही केवल ज्ञान सुरकोडि आवे, समवसरण मंडाइ सब दोष जावे ॥ १८॥ घटे द्रव्प जगदीश अवतार एसो, कहो भाव जगदीश अवतार केसो रमे अंश आरोप धरी ओघ दृष्टि ॥ लहे पूर्ण ते तत्व जे पूर्ण दृष्टि ॥ १९ ॥ त्रिकालज्ञ अरिहंत जिन पारगामी, विगत कर्म परमेष्टि भगवंत स्वामी ॥ प्रभू बोधिदा भयद आप्त स्वयंभू,
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