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( १५३) श्रीधर्मनाथ जिन स्तवन।
(राग मल्हार) देखी कामीनी दोय के, कामे व्यापीयोरे के कामे०-ए देशी.
धरमनाथ तुज सरखो, साहिब शिर थकेरे के साहिब शिर थके ॥ चोर जोर जे फोरवें, मुजश्युं इक मनेरे के मु०॥ गज निमीलिका करवी, तुजने नवि घटेरे के तु०॥ जे तुज सन्मुख जोतां, 'अरिनुं बल मिटेरे के अ० ॥ १ ॥ रवि उगे गयणंगणि, 'तिमिर ते नवि रहेरे के ति० ॥ कामकुंभ घर आवें, दारिद्र किम लहेरे के दा०॥ वन विचरे जो सिंह तो, बीह न गजतणीरे के बी० ॥ कर्म करे श्युं जोर, प्रसन्न जो जगधणी रे के प्र०॥२॥ मुगुण निर्गुणनो अंतर, प्रभु नवि चित्तें धरेरै के प्र०॥ निर्गुण पण शरणागत, जाणी हित करे रे के जा०॥ चंद त्यजे नवि लंछन, मृग अति सामलो रे के मृ० ॥ जश कहे तिम तुम्ह जाणी, मुज अरि बल दलो रे के मु० ॥ ३ ॥
श्रीशांतिनाथ जिन स्तवन। ॥ सुणिपसुआं वाणी रे ( अथवा) चित्रोडा राजारे-ए देशी ॥
जग जन मन रंजे रे, 'मनमथ बल भंजेरे ॥ नवि राग न दोस तूं, अंजे चित्तश्यु रे ॥ १॥ शिर छत्र विराजे रे, देव दुंदुभि
१ शत्रुन. २ सूर्य. ३ आकाशे. ४ अंधार. ५ कामदेव.
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