Book Title: Chaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Author(s): Shivnath Lumbaji
Publisher: Porwal and Company
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २०१ ) आय खडे तुम पाय ॥ मेरे दिल आय वसो ॥१॥ दास सभाव करी जो देवो, तो भव भवनां दुःख जाय ।। मेरे० ॥ २ ॥ दीन उद्धार धुरंधर तुम सम, अवर न को कहेवाय ॥ मेरे० ॥३॥ तुझ सम करुणा ठाम न कोइ, श्ये न करो सुपसाय ॥ मेरे० ॥ ॥४॥ देतां दाम न बेसे कांइ, उणीम काइ न थाय ॥ भेरै० ॥ ॥५॥ जे जेहना ते तेहना आखर, जिहां तिहां चित न बंधाय ॥ मेरे० ॥ ६॥ पग कावे एक साचे बोले, सुणी मनमां सुख थाय ॥ मेरे० ॥ ७॥ माहरे छे ते प्रगट करतां, प्रभु तुज नाम मु. हाय ।। मेरे० ॥ ८ ॥ ज्ञानविमल प्रभुस्युं इम विनति, करतां पाप पलाय ॥ मेरे ॥ ९॥ अनुभव लीला सुंदरी सहेजे, धाइ मिले गले आय ॥ मेरे० ॥ १० ॥ इति ।।
॥श्री साधारण जिन स्तवन । ॥ चंद्राप्रभुजीसे ध्यानरे मोरी लागी लगनवा-ए देशी ॥
॥ लग गइ अबीयां मेरीरे, म्हारो नाथजी जागे ॥ पेखी मूरतियां तेरीरे ॥ म्हारो० ए आंकणी ॥ प्रभु गुणनंदन वनहनि कुंजमां, खेलत चेतना प्यारी॥ म्हारो० ॥१॥'विकसित कज परे होवत छतीयां, प्रसरति मन सुख कारीरे॥ म्हारो० ॥२॥ रोम रोम तनु कंचुक उल्लसित,निकसित भ्रांति विचारीरे म्हारो॥३॥रसना गुण पार न पावत, करत विनतीयां धारीरे ॥ म्हारो० ॥४॥ रहत
१ विकस्वर कमलनी परे. २ जीभ.
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242