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( १३१) ॥ स्तवन चोथें ॥ ॥निद्रडी वैरण हुइ रही-ए देशी॥ ॥ श्री सीमंधर साहिबा, विनतडी हो सुणीये किरतार के ॥ ते दिन लेखे लागशे, जिग दिवसे हो लहीशुं दीदारके ॥श्री सी० ॥१॥ हेजाल्लं हैयु उल्लसे, पण नयगे हो निरख्ये मुख थाय के ॥ जे जल पाना पपासीओ, तस दुःखे हो करी तृप्ति न थाय के ॥ श्री सी०॥२॥ जाणो छो प्रभु बहु परे, माहरा मननी हो वीतकनी वात के ॥ तो शुं तागो छो घणु, आत्री मिलो हो मुज थाइ साक्षात के ॥ श्री सी० ॥ ३॥ हुँ उच्छक बहु परे कडं, पण न गणुं हो कांइ रीझ अरीझ के॥ ए लक्षण रागी तणुं, तिणे भांख्यु हो सघर्छ मन गुझ के ॥ श्री० ॥४॥ ज्ञानविमल प्रभु आपणो, जाणीने हो कीजे उच्छाह के ॥ उत्तम आप अधिक करे, आवी मळ्या हो ग्रह्या जे बांध के॥श्री०॥५॥इति॥
॥स्तवन पांचमुं॥ ॥ कर्म न छुटे रे पाणीया-ए देशी ॥ ॥श्री सीमंधर साहिबा, धरजो धरम सनेह । सेवक रसियो सेवा तणो, हुं छु तुम पद खेह ॥ श्री सो० ॥१॥ वहाला तुमे वस्या वेगळा, छो अम्ह हियडा हजूर ॥ तिणथी तिमिर दुरे गया, उग्यो अनुपम सूर ॥ श्री० ॥२॥ नयणे प्रीति जे दाखवे, ते संयोग
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