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(१०८) ॥श्री अनिनंदन स्वामीनुं स्तवन ॥
॥ शीराईनो सालु हो कसबी कोर खरी ।। ए देशी॥चौथो जिनपति हो के सेवो चित्त खरे, गुणमणी दरियो हो के परखो शुभ परे ।। वंछितदाता हो के प्रगटयो सुरतरु, मोहन मुरति हो के रुप मनोहरु ॥ १ ॥ सुरती सारी हो के भविनन चित्त वशी, मुख पंकज सोहे हो के जाणो पुरण शशी ॥ लोचन सुभगा हो के निरुपम जगधणी, भावे वंदो हो के प्रत्यक्ष सुरमणी ॥२॥ जग उपगारी हो के जग गुरु जग त्राता, जस गुण थुणतां हो के उपजे अति शाता । नाम मंत्रथी हो के आपदा सवि खसे,क्रोधा. दिक अजगर हो के तेहने नवि डसे ॥ ३ ॥ पुरणानंद परमेश्वर हो के ज्ञान दोवाकरु, चउगति चुरण हो के पाप तिमिर हरु ।। सहम विलासी हो के अठमद शोखतां, निःकारण वच्छलहो के वैराग पोखतां ॥ ४ ॥ निजद्रव्य परमेश्वर हो के स्वसंपद भोगी, परभाषना त्यागी हो के अनुभवगुण जोगी । अलेशी अणाहारी हो के खायक गुणभरो, अक्षय अनंता हो के अन्यायाध वरा ॥ ५॥ चार निखेपे हो के जे जीन चित धरे, अहलही अवलं. बन हो के पंचम गति वरे ॥ जीन उत्तमनी हो के सेवा जे करे, रतन अमुलख हो के पामे शुभ परे ॥ ६ ॥
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