Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 12
________________ सम्पादकीय भक्ति-महिमा भक्ति और उसका प्रभाव 'भज्' धातु में वित्तन् प्रत्यय लगाकर 'भक्ति' शब्द बनता है । अतः भजनं भक्तिः, भज्यते अनया इति भक्तिः तथा भजन्ति अनया इति भक्तिः आदि कई रूपों में इसकी व्युत्पत्ति की गई है । भक्ति अनेक प्रकार से की जाती है । प्रार्थना, स्तुति, स्तवन, श्रद्धा, विनय, वन्दना, आदर, नमस्कार, आराधना, दर्शन, पूजन, मंगल आदि भक्ति प्रदर्शन के ही विविध रूप हैं। सेवा, ध्यान और सामायिक को भी इसी के समकक्ष माना गया है । भक्ति में भक्त को अपना मन सब ओर से हटाकर अपने आराध्य में केन्द्रित करना पड़ता है । अतः उस तरह की सभी क्रियाओं को भक्ति कहा जा सकता है । धर्म में भक्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैनाचार्यों ने भक्ति के १२ भेद बताये हैं । सिद्ध भक्ति श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योग भक्ति, आचार्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, तीर्थंकर भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, निर्वाण भक्ति, नन्दीश्वर भक्ति और चैत्यभक्ति । इनमें से तीर्थंकर और समाधि भक्ति का १-२ अवसरों पर ही उपयोग होने से उनका दूसरों में अन्तर्भाव करके दश भक्तियां मानी गई हैं । उन सबका उद्देश्य वीतरागता की ओर प्रेरित करना है । भक्ति को गृहस्थ और मुनि दोनों के लिये समान रूप से महत्त्व - पूर्ण माना गया है । गृहस्थ के छह आवश्यक कार्यों में तो भक्तिभाव से जिनेन्द्र भगवान के दर्शन पूजन को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है ही ε

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