Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ भगवान् महावीर से पूर्व/३ थे। उनका मूल्य खरीदे हुए पशुओं से अधिक नहीं होता था। स्वामी को उन्हें दण्डित करने का पूरा अधिकार होता था। राज्य-सत्ता और धनशक्ति-दोनों मानव-मानव के बीच दीवार पैदा कर रही थी। मानवीय एकता और समता का सिद्धांत उनकी ओट में छिप रहा था। जातिवाद की धारणा ऊंच-नीच के भेद-भाव को पुष्टि दे रही थी। शूद्र नीचा समझा जाता था, अन्त्यज वर्ग उससे भी नीचा । मनुष्य का मूल्य एक बुद्धिमान् प्राणी होने के नाते नहीं था। दण्ड-शक्ति, धन-शक्ति और जन्मना-प्राप्त जाति के आधार पर मनुष्य मूल्य पाता था। इस परिस्थिति से सम्पन्न वर्ग में अहंभाव और विपन्न वर्ग में हीनभाव उत्पन्न हो गया था। इसमें कर्मवादी मान्यता भी कुछ योग दे रही थी। विपन्न मनुष्य अशुभ कर्म लेकर जन्मा है। उसे इस जन्म में उस अशुभ कर्म का फल भुगतना है इसलिए उसे कुछ किए बिना शान्त-भाव से अपना ऋण चुका देना चाहिए। शिक्षा का प्रसार व्यापक नहीं था। वह बड़े-बड़े लोगों को सुलभ थी। साधारण आदमी अपनी जीविका के अर्जन में ही लगा रहता था। उसकी चेतना जागृत नहीं थी, इसलिए वह हर परिस्थिति को मौन-भाव से सह लेता था। धर्म की दो मुख्य धाराएं थीं-श्रमण और वैदिक । श्रमणों के अनेक संघ थे। उन संघों के महाप्रज्ञ आचार्य तीर्थंकर कहलाते थे। वैदिक परम्परा के भी अनेक सम्प्रदाय थे। वैदिक ऋषि ईश्वरवादी थे। उपनिषद् के ऋषि ब्रह्मवादी थे। श्रमणों में भी कुछ आचार्य ईश्वरवादी थे, किन्तु बहुत सारे आत्मवादी और निर्वाणवादी थे। धर्म के सभी आचार्य विश्व के गूढ रहस्यों को उद्घाटित करने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ आचार्य ध्यान, तप आदि को दीर्घकालीन साधना के द्वारा सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न कर रहे थे तो कुछ उपासना और मन्त्र-शक्ति की उपासना करने वाले देवता की संतुष्टि के लिए होने वाली हिंसा को विहित मानते थे, फलस्वरूप पशु की बलि देते थे। स्वर्ग के लिए यज्ञ-त्याग करते थे। वे स्नान के द्वारा शुद्धि का प्रतिपादन करते थे। 'शरीर को कष्ट देने से मुक्ति होती है'-इस सिद्धान्त के आधार पर अनेक तपस्वी पंचाग्नि तप की साधना करते थे। वे अपने आसन के चारों ओर अग्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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