Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 94
________________ दर्शन और उद्बोधन / ८३ -ज्ञान-दर्शन लक्षण वाली मेरी आत्मा ही शाश्वत है। शेष जितने पदार्थ मेरे साथ जुड़े हुए हैं वे सब मुझसे भिन्न हैं - अशाश्वत हैं । ११. अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो । संसारतणहेदुं धम्मो त्ति जिणेणि णिद्दिट्ठं । । ( भाव पाहुड़ ८३ ) - आत्मा का आत्मा में रमण करना तथा राग आदि समस्त दोषों का छूट जाना ही धर्म है। यही संसार से पार उतरने का हेतु है । भगवान् ने ऐसा कहा है । १२. सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा । ( आ. ४ / २३ ) - सब प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का हनन मत करो। उन पर शासन मत करो । १३. एयं खु णाणिणो सारं, जं ण हिंसइ कंचणं । अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया । । (सू. १/१/४/१० ) - ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा न करे । अहिंसा का सिद्धांत इतना ही है कि जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी दुःख प्रिय नहीं है । ऐसा जानकर साधक किसी को न मारे । १४. जह ते णपियं दुक्खं, तहेव पि जाण जीवाणं । एयं णच्चा अप्पोवमिओ, जीवेसु होदि सदा ।। ( अ.आ. ७८० ) - जैसे तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है, वैसे ही दूसरे जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है । यह जानकर तुम उन जीवों के साथ वैसा ही हितकर व्यवहार करो उनसे अपेक्षा करते हो । जैसा तुम १५. जीववहो अप्पवहो जीवदया होदि अप्पणो हु दया । विसकंटओव्व हिंसा, परिहरिदव्वा तदो होदि । । Jain Education International For Private & Personal Use Only (भ. आ. ७९७ ) www.jainelibrary.org

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