Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 92
________________ ९. दर्शन और उद्बोधन १. जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारंमि अणंतए।। (उ. ६/१) -जितने अविद्यावन् पुरुष हैं, वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। वे दिग्मूढ़ की भांति मूढ़ बने हुए इस अनन्त संसार में बार-बार दु:ख का सृजन करते हैं। २. जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सई । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सई ।। (उ. २९/५९) -जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सुई गिरने पर भी गुम नहीं होता, उसी प्रकार स्वाध्यायशील पुरुष नष्ट नहीं होता। ३. इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा । ___ जं विज्जं साहइत्ताणं, सब्वदुक्खाण मुच्चति ।। -वही विद्या महाविद्या और सब विद्याओं में श्रेष्ठ है, जिसकी साधना कर, व्यक्ति सब दुःखों से मुक्त हो जाए। ४. जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ।। (मूला. ५/७०) -जिससे पदार्थ जाना जाता है, जिससे चंचल चित्त का निरोध होता है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, जैन शासन में उसे ही ज्ञान कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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