Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 105
________________ ९४/भगवान् महावीर ७१. न भाइयव् भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स व जराए। वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमादियस्स ।। (प्र. ७/२०) -भयपूर्ण परिस्थिति से मत डरो, व्याधि से मत डरो, शीघ्रघाती रोग से मत डरो, बुढ़ापे से मत डरो, मौत से मत डरो-किसी से भी मत डरो। ७२. सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स पत्थि भयं । (आ. ३/७५) -प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। अप्रमत्त को कहीं से भी नहीं होता। ७३. भीतो अवितिज्जओ मणूसो । (प्र. ७/२०) -डरा हुआ मनुष्य अपने को अकेला अनुभव करता है। ७४. णारतिं सहते वीरे, वीरे णो सहते रतिं । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति ।। (आ. २/६/१६०) -वीर पुरुष संयम में अरति (अनुत्साह) और असंयम में रति (उत्साह) को सहन नहीं करता। वह अपने आप में प्रसन्न रहता है। इसलिए वह किसी भी प्रलोभन में नहीं फंसता। ७५. जहा कुम्मे स अंगाई सए देहे समाहरे। एवं पावेहि अप्पाणं, अज्झेप्पेण समाहरे।। ७६. साहरे हत्थपाए य, मणं सव्विंदियाणि य। पावगं च परिणाम, भासादोसं च पावगं । ७७. अणु माणं च मायं च, तं परिणय पंडिए। ___ सुतं मे इहमेगेसिं, एयं वीरस्स वीरियं ।। (सू. १/८/१६-१८) -जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही अपनी आत्मा को पापों से बचा अध्यात्म में ले जाना हाथ, पैर, मन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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