Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ दर्शन और उद्बोधन/९५ इन्द्रिय, चित्तवृत्ति और वाणी का संयम करना, अहं और प्रवंचना का परित्याग करना वीर का वीर्य है और इसी कारण वह वीर कहलाता है। ७८. केवलसत्तिसहावो, सोहं इदि चिंतए णाणी। (नियमसार ९६) -ज्ञानी यह चिंतन करे कि मैं अनन्तशक्ति-सम्पन्न हूं। ७९. दोहिं अंगेहिं उप्पीलितेहिं आता जस्स ण उत्पीलती। रागंगेय दोसेय, से हू सम्म णियच्छति ।। (इ. ४४/१) -जिसकी आत्मा राग और द्वेष की पीड़ा से पीड़ित नहीं होती वही मनुष्य सही निश्चय कर सकता है। ८०. ये अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ।। (आ. १/७/१४७) -जो अध्यात्म (अपने) को जानता है, वह बाह्य (पराए) को जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। ८१. तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण नत्यि कायव् । तह सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति।। (प्रच. १/६७) -यदि दृष्टि तम को हरने वाली है तो फिर मनुष्य को दीपक से क्या प्रयोजन? आत्मा स्वयं सुखमय है, फिर विषय उसे क्या सुख देंगे? ८२. जेसिं विसएसु रदी, तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । जइ तं णहि सब्भावं वावारी णत्थि विसयत्थं ।।। (प्र. १/६४) -जिन लोगों की विषयों में रुचि है, उनमें दुःख स्वाभाविक है यदि उनमें दुःख स्वाभाविक न हो तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ८३. जिंदामि जिंदणिज्जं, गरहामि य जं च मे गरहणीयं । आलोएमि च सव्वं, सब्भंतर-बाहिरं उवाहि ।। (मूला. २/५५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110