Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ कैवल्य और धर्मोपदेश/४९ भगवान् ने बताया- 'पुण्य और पाप काल्पनिक नहीं हैं। ये मनुष्य द्वारा विहित विधान से नियन्त्रित नहीं हैं। ये मनुष्य की सहज वृत्तियों से होने वाले तथ्य हैं। सत् प्रवृत्ति से पुण्य के और असत् प्रवृत्ति से पाप के परमाणु जीव के साथ सम्बन्ध करते हैं।' मेतार्य को संबुद्ध करने के लिए भगवान् ने परलोक की व्याख्या की। भगवान् ने कहा-'जिसका पूर्व और पश्चात् नहीं है, उसका मध्य नहीं हो सकता। मेतार्य! यदि तुम पूर्वजन्म में नहीं थे और अगले जन्म में नहीं होओगे तो वर्तमान जन्म में कैसे हो सकते हो? जिसका वर्तमान में अस्तित्व है, उसका अस्तित्व अतीत में भी होगा और भविष्य में भी होगा। अस्तित्व त्रैकालिक होता है। वह कभी लुप्त नहीं होता। इस विश्व में जितने तत्त्व थे, उतने ही हैं और उतने ही होंगे। उनमें से एक अणु भी न कम होगा और न अधिक। फिर तुम्हारा अस्तित्व कैसे समाप्त हो जाएगा? अस्तित्व के प्रवाह में परलोक स्वत: प्राप्त है।' प्रभास को निमित्त बनाकर भगवान् ने निर्वाण की चर्चा की। भगवान् ने कहा-'प्रभास! निर्वाण का अर्थ समाप्त होना नहीं है। दीप का निर्वाण होता है तब वह मिट नहीं जाता, किन्तु बदल जाता है। तैजस परमाणु तमस् के रूप में बदल जाते हैं। जीवन के निर्वाण का अर्थ उसके भव-पर्याय का बदल जाना है। जो जीव देह और कर्म के कारण विभिन्न भवों में विभिन्न रूप धारण करता वह निर्वाण-दशा में देह और कर्म से मुक्त होने के कारण भवभ्रमण नहीं करता। वह अपने मौलिक स्वभाव में स्थित हो जाता है। अनात्मा का आत्मा से पृथक् हो जाना और आत्मा का अपने रूप में स्थित हो जाना ही निर्वाण है।' भगवान् ने जीव आदि तत्त्वों की अनेकान्त दृष्टि से स्थापना की। एकांगी दृष्टिकोण के कारण ये तत्त्व विवादास्पद बने हुए थे। उनके खंडन-मंडन की परम्परा चल रही थी। इन्द्रभूति गौतम जैसे विद्वान् उस खंडन-मंडन के मायाजाल में उलझ रहे थे। भगवान् ने खंडन-मंडन के जाल से परे ले जाकर उन्हें समन्वय का दृष्टिकोण दिया। उन्होंने उस दृष्टिकोण से देखा और वे यथार्थ-द्रष्टा बन गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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