Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 83
________________ ७२/ भगवान् महावीर नहीं हो सकती और अहिंसा के बिना सत्य नहीं हो सकता। दोनों एक साथ होते हैं । महावीर ने त्रैकालिक अवस्थाओं के योग्य पिंड को भी सत्य माना और वर्तमान पर्याय को भी सत्य माना । शब्द को भी सत्य माना और अर्थ को भी सत्य माना। उन्होंने किसी से नहीं कहा कि तुम असत्य हो, तुम्हारा विचार असत्य है। उन्होंने किसी से कुछ कहा तो यही कहा कि तुम सापेक्ष को समझ लो, दूसरों के दृष्टिकोण की सचाई को भी समझ लो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो सम्भव है तुम भी असत्य हो जाओगे और तुम्हारे हाथ लगा सत्य भी असत्य हो जाएगा। अपने दृष्टिकोण की सच्चाई को दूसरों के दृष्टिकोण की सच्चाई से समन्वित करने का सूत्र महावीर की अहिंसा का, उनके स्वभाव का, उनकी वीतरागता का महान् सूत्र है । इससे समूची मानव-जाति का वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल हो सकता है । तत्त्व-दर्शन भगवान् महावीर कैवल्य को प्राप्त कर द्रष्टा हो गए, दार्शनिक नहीं। दार्शनिक श्रुत और चिंतन से जानता है, देखता नहीं है। भगवान् ने स्वयं देखा और देखने के बाद कहा- जो नहीं देखता, अपने भीतर नहीं देखता, अपने आपको नहीं देखता, उसे अपना ज्ञान नहीं होता । वह दूसरों के ज्ञान से जानता है-या श्रुत के ज्ञान से ( सुने - सुनाए ज्ञान से ) जानता है या चिंतन के ज्ञान से (मति के ज्ञान से ) जानता है । किन्तु अपने आंतरिक बोध से नहीं जानता । जिसे अपना ज्ञान प्राप्त नहीं होता, उसे चारित्र प्राप्त नहीं होता। वह राग, द्वेष और मोह - रहित आचरण नहीं कर सकता। जिसे चारित्र प्राप्त नहीं होता, उसका मोक्ष नहीं होता। राग-द्वेष का क्षय होने पर ही मोक्ष होता है। जिसका मोक्ष नहीं होता, उसे निर्वाण उपलब्ध नहीं होता ।' इस निर्वाण की प्रक्रिया का पहला सूत्र दर्शन है । भगवान् ने कहा - 'सत्य को देखो। मैं जो कहता हूं, केवल उसी के सहारे मत चलो। तुम स्वयं देखो।' जीव और अजीव इस विश्व में दो मूल तत्त्व हैं- जीव और अजीव । विश्व केवल चेतनात्मक नहीं है और केवल अचेतनात्मक भी नहीं है । यह चेतना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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