Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 81
________________ ७०/भगवान् महावीर अहिंसा और समन्वय वैचारिक हिंसा शारीरिक हिंसा से कम नहीं है। उससे बड़ी हो सकती है और शारीरिक हिंसा की निमित्त भी हो सकती है। विचार के प्रति मनुष्य का उतना ही महत्त्व होता है, जितना धन के प्रति होता है, अधिक भी हो सकता है। भगवान् महावीर ने वैचारिक परिग्रह की ग्रंथि को खोलने के लिए अनेकांत की दृष्टि प्रस्तुत की। उन्होंने कहा-'वस्तु के अनन्त धर्मों और पर्यायों को अनन्त चक्षुओं से देखो। उन्हें किसी एक ही चक्षु से मत देखो। जो व्यक्ति वस्तु-सत्य को एक चक्षु से देखता है वह अपने स्वीकृत सिद्धांत का समर्थन और दूसरों की स्वीकृतियों का खंडन करता है।' भगवान् महावीर के युग में धर्म-सम्प्रदायों की संख्या कम नहीं थी। वे सब भिन्न-भिन्न विचारों का प्रतिपादन करते थे, परस्पर एक-दूसरे के खंडन-मंडन में ही धर्म को खपा देते थे। नित्यवादी अनित्यवाद का खंडन करते थे और अनित्यवादी नित्यवाद का। भगवान् महावीर ने अपनी प्रज्ञा से देखकर कहा- 'कोई भी वस्तु नित्य नहीं है और कोई भी वस्तु अनित्य नहीं है। जो है वह नित्य और अनित्य दोनों से समन्वित है। तुम जिस वस्तु को जिस क्षण नित्य कहते हो उस क्षण वह अनित्य भी है। जिस क्षण तुम उसे अनित्य कहते हो उस क्षण वह नित्य भी है। तुम्हारी भाषा में ऐसी शक्ति नहीं है कि उसका एक शब्द एक क्षण में दो धर्मों का प्रतिपादन कर सके। इसलिए तुम जो कुछ कहो उसके साथ स्यात्' शब्द जोड़कर ही कहो 'स्यात् अस्ति' (सिय अत्थि) किसी दृष्टिकोण से वस्तु है। 'स्यात् नास्ति' (सिय नत्थि) किसी दृष्टिकोण से वस्तु नहीं है। अस्ति और नास्ति के क्षण भिन्न नहीं हैं। जिस क्षण में वस्तु का अस्तित्व है उसी क्षण में उसका नास्तित्व भी है। स्यात् शब्द इसकी सूचना देता है कि जहां अस्तित्व मुख्य है वहां नास्तित्व गौण होकर उसके साथ जुड़ा हुआ है। जहां नास्तित्व मुख्य है वहां अस्तित्व गौण होकर उसके साथ जुड़ा हुआ है। वे दोनों एक दूसरे से पृथक् नहीं हो सकते। वे दोनों धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते, इस दृष्टिकोण से वस्तु स्यात् अवक्तव्य (सिय अव्वत्तव्व) है।' । यह स्याद्वाद का दृष्टिकोण वैचारिक द्वन्द्व की समाप्ति का दृष्टिकोण है। इससे सभी विचारधाराओं का समन्वय सधता है। स्याद्वाद से वस्तुओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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