Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 87
________________ ७६/भगवान् महावीर की कोई स्वतंत्रता नहीं रहती। वह सर्वथा कर्म के अधीन हो जाता है। भगवान् महावीर अनेकांत के मंत्रदाता थे। वे सत्य को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखते थे। उन्होंने देखा कि कर्म मनुष्य को प्रभावित करता है, यह सत्य है। इस सत्य का दूसरा पहलू भी है कि मनुष्य का प्रवल पुरुषार्थ कर्म को प्रभावित करता है। दोनों के प्रभावों को सापेक्षदृष्टि से देखने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि कर्म मनुष्य की शक्ति को न तो निर्बाध होने देता है और न उसका सर्वांशत: अपहरण कर पाता है। कर्म का पूर्ण क्षय होने पर मनुष्य की ज्ञानशक्ति, वीतरागता और कर्मशक्ति सर्वथा निर्बाध हो जाती है। कर्म का सीमित क्षय या उपशम होता है तब मनुष्य की शक्ति कभी प्रकट होती है और कभी बाधित, फिर प्रकट और फिर बाधित। यह क्रम चलता रहता है। इस क्रम में मनुष्य का वीर्य प्रबल होता है और कर्म का वीर्य दुर्बल, कभी कर्म का वीर्य प्रबल होता है और मनुष्य का वीर्य दुर्बल। इस परिवर्तनशील स्थिति के आधार पर भगवान् महावीर ने कर्म के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। वे सिद्धांत कर्म के विषय में प्रचलित एकांगी धारणाओं में संशोधन प्रस्तुत करते हैं। सामान्य धारणा है कि मनुष्य कर्म के अधीन है। जैसा भाग्य में लिखा है वैसा ही होता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं-ये धारणाएं एकांगी होकर मिथ्या हो गई थीं। महावीर ने इन धारणाओं को अनेकांत के संदर्भ में समझाया। उन्होंने कहा-मनुष्य कर्म के अधीन है, यह तभी सत्य हो सकता है जब हम इस वास्तविकता को न भुलाएं कि कर्म भी मनुष्य के पुरुषार्थ के अधीन है। जैसा भाग्य में लिखा होता है, वैसा ही होता है, यह तभी सत्य हो सकता है जब हम इस वास्तविकता को ध्यान में रखें कि पुरुषार्थ का मूल्यांकन न करने पर ही ऐसा होता है। यदि पुरुषार्थ का प्रयोग किया जाए तो भाग्य को बदला जा सकता है, कर्म के फल में परिवर्तन किया जा सकता है। कर्म-परिवर्तन के चार सिद्धांत भगवान् महावीर ने कर्म-परिवर्तन के चार सिद्धान्त प्रतिपादित किए१. उदीरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना। २. उद्वर्तन-कर्म की अवधि और फलशक्ति में वृद्धि होना। ३. अपवर्तन-कर्म की अवधि और फलशक्ति में कमी होना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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