Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ ७४/भगवान् महावीर विषयों के प्रति राग और द्वेष होता है। इससे दुःख-चक्र को गति मिलती है। जिसे सम्यग्दृष्टि उपलब्ध हो जाती है वह दु:ख चक्र के मूल पर प्रहार करता है। विषयों को जानना, उनमें आसक्त न होना, राग-द्वेष न करना, दु:ख-चक्र के मूल पर प्रहार करना है। यह प्रहार दो दिशाओं से किया जाता है। एक दिशा है-प्रत्येक जीव दूसरे जीव से स्वतन्त्र है। अजीव के पांच प्रकार हैं-नए कर्मों का बंध न करना-संवर करना और दूसरी दिशा है-पुराने कर्मों को क्षीण करना-निर्जरा करना। इस संवर और निर्जरा की प्रक्रिया से नया बंध निर्मित नहीं होता और पुराना क्षीण होता है, जीव का मोक्ष होता है। बंध जितना क्षीण होता है उतना ही जीव मुक्त हो जाता है। बंध पूर्णतया क्षीण होता है तब जीव पूर्णतया मुक्त हो जाता है। तत्त्व-दर्शन का प्रयोजन धर्म की भूमिका में तत्त्व-दर्शन का प्रयोजन बौद्धिक व्यायाम नहीं है, केवल जानना नहीं है। उसका प्रयोजन है मोक्ष। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए भगवान् महावीर ने नव तत्त्व निरूपित किए-१. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. निर्जरा, ८. बंध, ९. मोक्ष । इनमें जीव और अजीव का निरूपण अस्तित्व की दृष्टि से है। शेष सात तत्त्व बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया के रूप में निरूपित हैं। आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप-ये दो तत्त्व दुःख-चक्र की मुक्ति के हेतु हैं। दुःख-चक्र से पूर्णतया विमुक्त हो जाने वाला मुक्त हो जाता है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्म सिद्धांत ___ भगवान् महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता का प्रतिपादन किया। आत्मा किसी परमात्मा का अंश नहीं है। वह मुक्त होने के बाद परमात्मा में विलीन नहीं होती। बद्ध अवस्था में भी आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है और मुक्त अवस्था में भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व होता है। बीसवीं शताब्दी के चिंतनशील मानस में भगवान् महावीर की प्रतिमा मानव-जाति के मुक्तिदाता के रूप में उभर रही है। उन्होंने मानव-जाति को परिनिर्भरता की मृगमरीचिका से मुक्त किया था। स्वाबलम्बन और पराक्रम की ज्योति से आलोकित पथ पर चलने की दृष्टि दी थी। ईश्वर को अपने भाग्य का नियंता मानने वाले उस पर निर्भर होकर बैठे थे। प्रकृति को नियंता मानने वाले उस पर निर्भर थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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