Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 82
________________ वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में जैन धर्म का योगदान/७१ समन्वय निर्मित्त नहीं किया जाता। वह वस्तुओं में स्वभावत: है। स्याद्वाद के द्वारा उस स्वाभाविक धर्म (समन्वय) को व्यक्त किया जाता है। यह समन्वय का मार्ग एकांगी दृष्टिकोण, वैचारिक अभिनिवेश और मताग्रह से होने वाली हिंसा से मुक्ति देने वाला है। __ समन्वय के हजारों-हजारों दृष्टिकोण हो सकते हैं। भगवान् महावीर ने उसके सात वर्गीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत किए १. नैगम : भेद और अभेद दोनों को स्वीकार करने वाली दृष्टि । २. संग्रह : केवल अभेद को स्वीकार करने वाली दृष्टि। ३. व्यवहार : केवल भेद को स्वीकार करने वाली दृष्टि । ४. ऋजुसूत्र : केवल वर्तमान क्षण को स्वीकार करने वाली दृष्टि । ५. शब्द : काल आदि की भिन्नता से शब्द के अर्थ-भेद को स्वीकार करने वाली दृष्टि। ६. समभिरूढ़ : शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ-भेद को स्वीकार करने वाली दृष्टि। ७. एवंभूत : वर्तमान क्रिया के अनुसार ही शब्द के अर्थ को स्वीकार करने वाली दृष्टि। कुछ ऋषि संश्लेषात्मक दृष्टिकोण से देखकर वस्तु की एकता का प्रतिपादन करते थे। कुछ विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से देखकर उसकी अनेकता का प्रतिपादन करते थे। भगवान् ने दोनों की सचाई को स्वीकार किया। सोमिल ने पूछा-'भंते! आप एक हैं या अनेक?' भगवान् ने कहा--'सोमिल! मैं एक भी हूं और अनेक भी हूं। द्रव्य (संश्लेषात्मक पिंड) की दृष्टि से मैं एक भी हूं। पर्याय (विश्लेष धर्म) की दृष्टि से मैं अनेक भी हूं।' महावीर ने कहा- 'एक होना भी सत्य है और अनेक होना भी सत्य है। दोनों तभी सत्य हैं जब एक दूसरे से सापेक्ष हों। सापेक्षता का सूत्र जैसे ही टूटता है वैसे ही दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है। यह सापेक्षता ही महावीर का नयवाद है। स्याद्वाद में स्यात् शब्द का प्रयोग एक सत्यांश (धर्म) को शेष सत्य के साथ जोड़ता है और नयवाद में सापेक्षता का सूत्र एक सत्यांश को शेष सत्य के साथ जोड़ता है। निरपेक्ष एकांगी दृष्टिकोण सत्य नहीं होता। जहां सत्य नहीं होता, वहां अहिंसा नहीं हो सकती। सत्य के बिना अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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