Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ १६/ भगवान् महावीर शिशु ने माता-पिता की मनोदशा, उनके भावी मनोरथों पर विचार किया। उनके प्रेम और वात्सल्य को ध्यान में रखकर शिशु ने यह प्रतिज्ञा की-माता-पिता के जीवित - काल में मैं उन्ही के साथ रहूंगा। उनका स्वर्गवास होने पर दीक्षित होऊंगा । अद्भुत शिशु आज देवी त्रिशला का मन सबसे अधिक उल्लसित है । शिशु के जन्म पर सबको उल्लास है । पर जितना उल्लास त्रिशला को है उतना दूसरों को कैसे हो सकता है ? देवी ने गर्भकाल में महत्त्वपूर्ण स्वप्न देखे थे स्वप्न-पाठक ने बताया था - देवी का पुत्र धर्म - चक्रवर्ती होगा। ये सब स्मृतियां उसे उल्लसित कर रही थीं । 1 देवी ने गर्भ की सुरक्षा और श्रेष्ठता के लिए अद्भुत संयम की साधना की थी । उसकी सफलता पर हर्ष होना स्वाभाविक है। देवी ने गर्भकाल में भोजन का संयम किया । वह अति शीत, अति उष्ण, अति तीक्ष्ण, अति कटुक, अति कसैले अति खट्टे, अति चिकने, अति रुखे, अति आर्द्र और अति शुष्क पदार्थ नहीं खाती थी । वह सब ऋतुओं के अनुकूल संतुलित भोजन करती थी । देवी गर्भकाल में शोक, चिन्ता, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष आदि मानसिक आवेगों से बचकर प्रसन्नमना रहती थी । उसका सारा वातावरण प्रसन्नता से ओत-प्रोत था । सुगंधित चूर्ण और पुष्पमाला द्वारा उसका आवास सुवासित रहता था । वह धीमे-धीमे चलती, धीमे-धीमे बोलती, अट्टहास्य नहीं करती, खुले आकाश में नहीं बैठती और त्वरा से कोई कार्य नहीं करती । शिशु का सबसे अच्छा निर्माण गर्भ में होता है। माता पर उसके निर्माण का बहुत बड़ा दायित्व है। जो माता इस तथ्य को जानती है वह अपने पुत्र को सुन्दर, प्रबुद्ध और महावीर बना सकती है। इसे नहीं जानने वाली माता अपने पुत्र को कुरूप, अज्ञानी और महाकायर बना सकती है 1 त्रिशला ने अपने दायित्व का उचित निर्वाह किया। फलतः उसने एक सर्वांग सुन्दर और सर्वलक्षण- संपन्न शिशु को जन्म दिया । वह शिशु इस लौकिक सृष्टि में आया । फिर भी अलौकिकता ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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