Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ गृहवास के तीस वर्ष / २५ कर दिया । इन्द्रिय संयम सध गया । वाणी का संयम और ध्यान - दोनों विकसित हो गए। इस स्थिति में उन्हें गृहवासी नहीं कहा जा सकता, यद्यपि वे गृह में रहे थे। उनकी वेशभूषा गृहवासी जैसी थी । वे परिवार के बीच रहते थे। संपत्ति के वैधानिक अधिकार से मुक्त नहीं हुए थे । इस स्थिति में उन्हें गृहत्यागी भी नहीं कहा जा सकता, यद्यपि वे आत्मा की सन्निधि में रह रहे थे। 1 एक वर्ष पूरा हो गया। अब वर्तमान जीवन और भावी जीवन के मध्य केवल एक वर्ष का अन्तराल था । कुमार गृहवास में थे, पर उनकी आन्तरिक चेतना में गृहमुक्तवास का स्वप्न आकार ले रहा था। वे राजकुल के वैभव के बीच थे, पर उनका अन्त:करण वैभव-मुक्ति की दिशा में गतिशील हो रहा था। धन कहीं एक स्थान पर केन्द्रित हो, यह उन्हें इष्ट नहीं था । प्रतिदिन प्रात: काल वे उसे बांटने लगे। हजारों-हजारों व्यक्ति उससे लाभान्वित हुए। कुमार ने जो अपना था, उसका वितरण किया, जा प्राप्त होता था, उसका वितरण किया । यह वितरण का क्रम पूरे वर्ष तक चला । दान की भूमिका सम्पन्न हो गई। अपरिग्रह की भूमिका का क्षण प्रस्तुत हो गया । दो वर्ष पूरे हो गए । नन्दिवर्द्धन के अनुरोध की अवधि पूर्ण हो गई। अब कुमार के महाभिनिष्क्रमण का मार्ग निर्बाध हो गया । कुमार ने नन्दिवर्द्धन और चाचा सुपार्श्व के सामने फिर श्रमणदीक्षा का प्रस्ताव किया । उन दोनों ने स्वीकृति दे दी। अब महाभिनिष्क्रमण का अवरोध समाप्त हो गया। हेमन्त ऋतु, मृगसिर कृष्णा दशमी, दिन का तीसरा प्रहर, विजय मुहूर्त - उस बेला में कुमार ने घर से अभिनिष्क्रमण किया । कुमार ने दो दिन का उपवास किया। उनकी उपवास साधना बहुत अद्भुत थी । वे आत्मा को शरीर से भिन्न देखते थे। शरीर और चेतना को अभिन्न मानने वाला शरीर को सर्वोपरि मूल्य देता है किन्तु शरीर और आत्मा को भिन्न मानने वाला सर्वोपरि मूल्य देता है आत्मा को । वह शरीर के लिए नहीं जीता। वह जीता है शरीर के भीतर विराजमान आत्मा को मुक्त करने के लिए । आत्मा को मुक्त करने लिए शरीर का विसर्जन बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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