Book Title: Bhagvana Mahavira
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ साधना-काल/३३ उन्होंने कहा-'भंते ! यह मार्ग सीधा है। पर खतरनाक है। थोड़ा आगे जाने पर चंडकौशिक सर्प का खतरा है। वह सर्प दृष्टिविष है। उसके दृष्टिपात मात्र से आदमी भस्म हो जाता है। भंते! आप बाहरी मार्ग से जाइए। वह थोड़ा लम्बा जरूर है पर निरापद है। जान-बूझकर जीवन के साथ क्यों खेलना चाहिए?' जिजीविषा रखने वालों के लिए उनका परामर्श बहुत काम का था। पर महावीर की जिजीविषा समाप्त हो चुकी थी। उनमें जीने की इच्छा शेष नहीं थी। जिसमें जीने की इच्छा नहीं होती, उसमें मरने की इच्छा भी नहीं होती। साधारणतया हम सोचते हैं कि आदमी जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता। पर गहरे में उतरने पर पता लगेगा कि जो जीना चाहता है वह मरना भी चाहता है। मरने की चाह मिटने पर जीने की चाह भी शेष नहीं रहती। जीने की चाह मरने की चाह से जुड़ी हुई है। वह उससे अलग नहीं हो सकती। महावीर जीवन और मृत्यु (जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं) से ऊपर उठकर चल रहे थे। उनका ध्यान केन्द्र आत्मा बन चुका था। वह जन्म और मृत्यु-दोनों से अतीत है। महावीर ने ग्वालों के परामर्श को स्वीकार नहीं किया। वे आगे की ओर चले। वे सब जीवों के साथ तादात्म्य स्थापित कर रहे थे। यह एक महत्त्वपूर्ण अवसर था। इसे वे कैसे खो देते? वे वनखण्ड में पहुंचकर खड़ी मुद्रा में ध्यान करने लगे। चंडकौशिक सर्प आश्रम में घूमकर वहां आया। उसने देखा, कोई आदमी खड़ा है। उसका क्रोध भभक उठा। अपने एकान्त का भंग उसे अच्छा नहीं लगा। उसके स्थान पर कोई दूसरा आ जाए यह कैसे सह्य हो सकता है? उसका फन ऊपर उठा। उसने सूरज के सामने दृष्टि डाली और फिर वही क्रूर दृष्टि महावीर पर फेंकी। उनके शरीर के आभा-वर्तल के आसपास विष की धारा बह चली। सारा वायुमंडल विषमय हो गया, पर महावीर पर कोई आंच नहीं आई। वे विष के समुद्र में अमृत की भांति निश्चल खड़े रहे। उनकी अपलक दृष्टि से प्रेम की धारा बहने लगी। अमृत और विष का, प्रेम और रोष का द्वन्द्व-युद्ध शुरू हो गया। चंडकौशिक को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसका आज तक का अनुभव यही है कि उसकी जिस पर दृष्टि पड़ी वह वहीं ढेर हो गया। वर्तमान की घटना उसके लिए सर्वथा नई है। उसने पूरे रोष में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110