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९. गाथा
उड्ढं अहेय तिरियं दिसासु
तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहि पायहि य संजमित्ता, अदिन्नमन्नसु य नो गहेज्जा॥
सू० श्रु० १ अ० १० गा० २
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अर्थ
ऊर्ध्व और तिर्यग् दिशा में जितने भी त्रस और स्यावर जीव रहते हैं आत्मज्ञानी पुरुष उन्हें हाथ-पैरों तथा अन्य अंगों से किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुंचावे। अपने जीवन को संयम में रखें। विना दिये दूसरे की चीज कदापि न लेवे ।