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११. गाया
जे पाव कम्मे हि धणं मणूसा समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपर्यट्टिए नरे वेराणुबद्धा णरयं उवेन्ति ॥
अर्थ
उत्त० अ० ४ गा० २
धन को अमृत स्वरूप समझ कर मनुष्य अनेक पाप कर्मों के द्वारा धन को प्राप्त करता है और वह कर्मों के दृढ बन्धन में बंध जाता है । अनेक प्राणियों के साथ वैर वान्ध कर अन्त में सब कुछ यहीं छोड़ कर नरक में चला जाता है ।