Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रारम्भ में कतार्किकाज्ञाननिवृत्तिहेतः' के द्वारा दिइनाग की ओर ही संकेत करते हैं । कुमारिल भट्ट ने भी श्लोकवार्तिक की रचना कर दिइनाग का खण्डन किया है। ३१ जैन दार्शनिक मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र द्वारा बौद्ध-खण्डन में हाथ बंटाया। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक की रचना कर तत्कालीन समस्त दार्शनिकों पर अचूक प्रहार किये । इस प्रकार पारस्परिक खण्डन-मण्डन द्वारा प्रमाण- शास्त्रों की विशाल स्तर पर सर्जना प्रारम्भ हो गयी । पारस्परिक खण्डन के कारण,न्याय वैशेषिक,पूर्वमीमांसा,जैन एवं बौद्ध दर्शनों में अनेक प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण हुआ और यह परम्परा समस्त दर्शनों में ग्यारहवीं शताब्दी तक निरन्तर गतिशील रही। उसके अनन्तर नव्यन्याय, जैनन्याय आदि के ग्रंथों का निर्माण जारी रहा, किन्तु बौद्धन्याय के ग्रंथों की परम्परा भारत से लुप्त हो गयी।
यहाँ पर बौद्ध एवं जैन प्रमाणमीमांसा का अध्ययन अपेक्षित है,अतः अब प्रत्येक की ऐतिहासिक परम्परा का विहंगावलोकन किया जायेगा।
बौद्ध-परम्परा __ भारतवर्ष में बौद्ध दर्शन का अस्तित्व भगवान बुद्ध से लेकर ग्यारहवीं शती के आरम्भ तक रहा जिसे प्रसिद्ध रूसी दार्शनिक श्वेरबात्स्की ( Stcherbatskey) ने तीन समान कालों में विभक्त किया है । ३२ प्रथम काल ५०० ई० पूर्व से प्रथम शती ई.,द्वितीय काल प्रथम शती से ५०० ई. तथा तृतीय काल ५०० ई० से ११ वीं शती का प्रारम्भ अथवा १००० ई. तक निर्धारित किया है।
श्वेरबात्स्की के विभाजन का आधार सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन एवं उसमें हुए वैचारिक परिवर्तन हैं, किन्तु यहाँ सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन का अध्ययन अपेक्षित न होकर मात्र प्रमाण का अध्ययन अपेक्षित है, अतः नवीन विभाजन अभीष्ट है। बौद्ध प्रमाणमीमांसा के प्रधान केन्द्र आचार्य दिइनाग हैं, अतः उन्हें दृष्टिगत रखते हुए हम बौद्ध दर्शन में ग्रथित सम्पूर्ण प्रमाणमीमांसा को दो भागों में रख सकते हैं।
१- प्राग् दिङ्नाग प्रमाणमीमांसा (पांचवीं शती के प्रारम्भ तक) २- दिङ्नाग एवं उनके सम्प्रदायवर्ती प्रमाणमीमांसा (पांचवीं शती से ग्यारहवीं शती तक)
दिङ्नाग के पूर्व का अध्ययन क्षेत्र भी विस्तृत है अतः उसे सौविध्य के लिए पुनः दो उपविभागों में बांट सकते हैं- (१) त्रिपिटककालीन एवं (२) त्रिपिटकोत्तरवर्ती। त्रिपिटककालीन प्रमाणमीमांसा
सम्पूर्ण त्रिपिटक साहित्य में प्रमाणशास्त्र का निरूपण करने वाला एक भी स्वतन्त्र ग्रंथ नहीं है।
३१. पं० महेन्द्र कुमार शास्त्री ने कुमारिलभट्ट (६००-६८० ई.) को धर्मकीर्ति (६२०-६९० ई०) का पूर्व समकालीन एवं
दिङनाग का उत्तरवर्ती प्रतिपादित किया है।-अकलङ्ग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ०१८-२१ ३२. Buddhist Logic, Vol. 1, p.3
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