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[१७] भगवान का स्वरूप, ज्ञानदृष्टि से हम ईश्वर के अंश नहीं हैं, ईश्वर के टुकड़े नहीं हैं। हम सर्वाश हैं। आवरण दूर हो जाएँ और प्रकट हों, उतनी ही देर!
भगवान कण-कण में हों, तो उन्हें ढूंढे कहाँ? संडास कहाँ जाएँ? फिर तो जड़-चेतन का भेद ही नहीं रहा न? जीव-मात्र में भीतर भगवान बिराजमान हैं।
जिस वस्तु में मालिकीभाव का आरोपण हो चुका है, उसे उससे दूर करते ही मालिक को दु:ख होता है, उसे संकल्पी चेतन कहा है। वास्तव में तो जहाँ ज्ञान-दर्शन है, वहाँ चेतन है।
[१८] ज्ञातापद की पहचान ! तीन वस्तुओं की मोक्षमार्ग में जरूरत है : (१) आत्मा प्राप्त करने की तीव्र इच्छा। (२) 'ज्ञानी पुरुष' प्राप्त करने की तीव्र इच्छा। (३) 'ज्ञानी पुरुष' नहीं मिलें, तो 'ज्ञानी पुरुष' प्राप्त हो, ऐसी भावना करना।
- दादा भगवान। इस ब्रह्मांड के तमाम जीवों का भगवत् स्वरूप से दर्शन करता हूँ बोलें, तब वहाँ तमाम 'रिलेटिव' धर्म समा जाते हैं। स्व को जानने के बाद स्व का स्वाध्याय होता है। 'स्व' को जाने बिना जो कुछ भी किया जाता है, वह पराध्याय है!
___ अनादिकाल से जिसे 'ज्ञाता' माना हुआ है, वही 'ज्ञेय' हो जाता है तब निजस्वरूप का भान हो गया कहलाता है!
अज्ञान से निवृत्ति का नाम ही मोक्षधर्म। अज्ञान से निवृत्ति होने के बाद विज्ञान उत्पन्न होता है, उसका नाम मोक्ष !
[१९] यथार्थ भक्तिमार्ग! जब तक भीतर बिराजमान भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होते तब
तक मूर्ति के सम्मुख परोक्ष प्रार्थना भी प्रत्यक्ष की ओर जाती है। उसके लिए इस प्रकार से सब जगह दर्शन करना।
"हे वीतराग भगवान! आप मेरे भीतर ही बैठे हैं, पर मुझे उसकी पहचान नहीं है इसलिए आपके दर्शन कर रहा हूँ। मुझे यह 'ज्ञानी पुरुष' ने सिखलाया है, इसलिए उस अनुसार आपके दर्शन कर रहा हूँ। तो आप मुझे मेरे 'खुद' की पहचान हो वैसी कृपा कीजिए।" - दादा भगवान।
पाँच इन्द्रियों से ईश्वरप्राप्ति के लिए जो कुछ भी होता है वह भक्ति है। प्रत्यक्ष भक्ति से भगवान मिलते हैं। परोक्ष भक्ति से धीरे-धीरे उर्वीकरण होता रहता है। प्रत्यक्ष भक्ति अर्थात् कि जहाँ भगवान प्रकट हो गए हैं, उनकी भक्ति। उससे मोक्ष मिलता है।
भक्ति की सूक्ष्मता के भेद हैं। नामजाप से स्थूल भक्ति, स्थापना से सूक्ष्म, द्रव्य से सूक्ष्मतर और भाव से सूक्ष्मतम भक्ति है।
भक्तिमार्ग से मोक्ष है या ज्ञानमार्ग से? ज्ञानमार्ग की एक पटरी डाली जाए उसके समानांतर भक्तिमार्ग की दूसरी पटरी डाली जाए, तब ही यह गाड़ी मोक्ष के स्टेशन तक पहुँचेगी। जितना ज्ञान मिले, उतनी भक्ति स्वयं प्रकट होती है। बिना स्वरूपज्ञान की भक्ति से संसार फल मिलता है. और दोनों साथ में हों, तब मोक्ष आ मिलता है! बुद्धि का प्रवेश है वहाँ अपराभक्ति है और मात्र ज्ञान के साथ भक्ति - वह पराभक्ति, जो मोक्ष में फलित होती है। पराभक्ति का आविर्भाव, वह इस अक्रम मार्ग की अनमोल देन है!
[२०] गुरु और ज्ञानी' एकबार गुरु का मंडन करने के बाद चाहे जैसे, सन्निपात के संयोग दिखें तो भी गुरु का खंडन नहीं करते। निंदा तो क्या. उल्टा विचार तक भी गुरु के लिए नहीं करते। भयंकर विराधना कहलाती है। वह ठेठ नर्क में भी ले जा सकती है!
संसार में शुभ-अशुभ सिखलाएँ, वे गुरु और शुभाशुभ छुड़वाकर