Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ मछली और छोटी मछली के बीच चलेनेवाले विनाशों को किसने नोट किया है? क्या वह 'व्यवस्थित नहीं है? [१३] व्यवहार धर्म - स्वाभाविक धर्म व्यवहारिक धर्म यानी सुख देकर सुख की प्राप्ति करनी। दुःख दें तो दु:ख मिलता है। ट्राफिक के धर्म का पालन करके क्या सब जान को सहीसलामत नहीं रखते? वहाँ अधर्म का आचरण करे तो टकराकर मर जाए, एक्सिडेन्ट करके रख दे! वैसे ही सुख की सलामती रखने के लिए सुख को बाँटना, वह रिलेटिव धर्म का रहस्य है! और 'रियल' धर्म में तो 'वस्तु-स्वभाव' को प्राप्त करना है। 'आत्मधर्म' को प्राप्त करना है! सर्व संयोगों में समाधान रहे वह 'रियल' धर्म। समाधान-असामाधान रहे वह 'रिलेटिव' धर्म। सनातन सुख को ढूंढनेवाले जीवों को जब वह नहीं मिलता है. तब वह कल्पित सुखों में कूद पड़ता है, जो परिणाम स्वरूप दुःखदायी ही सिद्ध होने के कारण जीव तरह-तरह की कल्पनाओं में खोकर सुख के लिए भटकता रहता है, फिर और भी अधिक उलझता जाता है! सनातन सुख तो खुद के भीतर ही है, आत्मा में है! सच्चा सुख पाने के लिए सच्चा बनना पड़ेगा और संसारी सुख प्राप्त करने के लिए संसारी ! समसरण मार्ग में प्रवेश प्राप्त करता है, तब से ही अंतरदाह की डोरी अविरत रूप से जलती ही रहती है, जिसका अंतरदाह मिट गया, उसका संसार अस्त हो गया! मोक्ष के लिए ज्ञानी की शरण और संसार में सुख के लिए माँबाप और गुरु की सेवा, इतने साधन करने चाहिए। लोगों के माने हुए सुख को सुख माने, वह लोकसंज्ञा और आत्मा में सुख है ऐसा मानना, वह ज्ञानी की संज्ञा । संत दु:ख-भोगी होते हैं, ज्ञानी आत्मभोगी होते हैं। संत दु:ख को सुख मानकर चलते हैं। पुद्गल सुख का आनंद उठाना, वह उधारी व्यवहार है, रीपे (वापिस चुकता) करना ही पड़ेगा। बेटा 'पापाजी-पापाजी' करके गोदी में कूदता हो तब उधार का सुख लिया जाता है, पर वही बेटा बड़ा होकर 'आपमें अक्कल नहीं है' कहे कि तब उधारी सुख को रीपे करना पड़ा! इसलिए पहले से ही क्यों न सचेत हो जाएँ? पुद्गल स्वयं वीतराग है, उसे जब से 'खुद' ग्रहण करता है, तब से उधारी व्यवहार शुरू होता है ! [१४] सच्ची समझ, धर्म की लौकिक धर्म संसारी सुख देता है, अलौकिक धर्म सनातन सुख देता है। मिथ्यात्व सहित की तमाम क्रियाओं से संसार फलित होता है। अलौकिक धर्म न तो त्याग में है, न ही भोग में। 'त्यागे सो आगे।' सिर पर जितने बोझ का वहन हो सके, उतना ही संग्रह करना चाहिए। सच्चा त्याग तो आर्तध्यान-रौद्रध्यान का त्याग करवाए, वह ! धर्म तो वह कहलाता है कि मुसीबत में रक्षण करे! आर्तध्यान, रौद्रध्यान होते समय धर्म हाज़िर होकर हमारा रक्षण करे! अनंत जन्मों से धर्म किए हैं, परन्तु समय आने पर यदि हमारी रक्षा नहीं हो तो इसे धर्म किया कहलाएगा ही कैसे? चिंता हो, वहाँ पर धर्म समझ में ही नहीं आया, ऐसा कहा जाएगा! अंतरसुख और बाह्यसुख का संतुलन है तब तक व्यवहार में शांति रहती है। बाह्यसुख, अंतरसुख की क़ीमत पर भोगा जाता है, उससे मानसिक स्थिरता खो जाती है। इसलिए ही तो नींद की गोलियाँ खाई जाती हैं। जहाँ ज़रा सा भी दुःख नहीं, वहाँ आत्मा है। विपरीत दर्शन से दुःख और सम्यक् दर्शन से सुख, सुख और सुख है। धर्म बनकर परिणमित हो, वह धर्म है। कोई गाली दे, तब धर्म मदद के लिए आता है। परिणमित हो-वह धर्म, और नहीं हो-वह अधर्म। जिसे उपाधि (बाहर से आनेवाले दःख) में समता रहे, उसके ऊपर मानो

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 191