Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 14
________________ वाणी को सुने बिना किसीको मोक्षप्राप्ति होना असंभव है! 'ज्ञानी' की वाणी में न तो कोई खंडन है न ही निज मत का मंडन है ! न तो किसीका विरोध है, न ही किसीको 'गलत है' ऐसा कहने को रहता है। वह वाणी स्यादवाद है, कि जहाँ न तो वाद, न ही विवाद और न ही संवाद है। निमित्ताधीन सहजभाव से प्रवाहित, वह है कारुण्य निथरता, अस्खलित पाताली झरने का प्रवाह !!! [१०] अक्रम मार्ग जहाँ चौदह लोक के नाथ प्रकट हुए हैं, वैसे 'ज्ञानी पुरुष' अर्थात् देहधारी स्वयं परमात्मा की कृपा प्राप्त हो जाए, वहाँ कुछ भी कर्तापन रहता नहीं है, मात्र उनकी आज्ञा में रहकर, उनके पीछे-पीछे चले जाना है। वैसे 'ज्ञानी पुरुष' इस काल में प्रकट हुए हैं, जिनकी कृपाप्रसादी प्राप्त करके 'अक्रमविज्ञान' द्वारा, 'अक्रममार्ग' से अर्थात् लिफ्ट में बैठकर आत्मज्ञान के उच्चतम शिखर घंटेभर में ही पार हो जाते हैं !!! इस अपवाद मार्ग की सिद्धि अति अति अद्भुत है !!! ऐसे कलिकाल में अक्रम मार्ग का भव्य उदय आया है ! यह अध्यात्म विज्ञान की अपूर्व भूमिका है! अविरोधाभास अखंड रूप से समस्त वाणी में विद्यमान है। अनंत जन्मों के पापों को घंटेभर में भस्मीभूत करके, आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति करवाते हैं, जहाँ उपादान की जागृति या अजागृति नहीं देखी जाती, अक्रम विज्ञानी के ज़बरदस्त पावरफुल निमित्त के सुयोग से जागृति शिखर पर बिराजे, वैसी दशा साधकों को प्राप्त हो जाती है, जहाँ कषाय संपूर्णरूप से खत्म हो जाते हैं, अहंकार-ममता विलय हो जाते हैं, जहाँ कुछ भी 'कर्त्तापन' नहीं रहता, केवल आत्मसुख के वेदन का संवेदन करना है, वैसी दशा की प्राप्ति करवानेवाले उन 'ज्ञानी' नहीं, 'विज्ञानी' की अक्रम की अथाह सिद्धि तो देखो !!! [११] आत्मा और अहंकार ‘मैं चंदूलाल हूँ, इस स्त्री का पति हूँ, इस लड़के का बाप हूँ, मैं बिज़नेसमेन हूँ, मैं मोटा हूँ, मैं गोरा हूँ।' ऐसी अनेक रोंग बिलीफ़ों के चादरें २५ ओढ़े हुए हैं। खुद की 'राइट बिलीफ़' पर, शुद्ध दर्शन और ज्ञान पर ! 'ज्ञानी पुरुष' उस 'रोंग बिलीफ़' को 'फ्रेक्चर' करके तमाम प्रकार के आवरण हटा देते हैं और सम्यक् दर्शन का भव्य द्वार खुल जाता है! जहाँ 'खुद' नहीं करता, फिर भी अज्ञानतावश आरोप करता है कि, 'मैंने किया', वह अहंकार है। और अहंकार से कर्म बंधते हैं, शरीर बनता है, मन बनता है, वाणी बनती है, पुद्गल मात्र का सर्जन उससे ही होता है। आत्मा परमात्मा की भेद स्वरूप से आराधना करना वह लौकिक धर्म है और आत्मा परमात्मा की अभेद स्वरूप से आराधना करना वह अलौकिक धर्म है और अलौकिक धर्म से मोक्ष है! अलौकिक धर्म में न तो पुण्य है, न ही पाप है, वहाँ तो किसी चीज़ का कर्त्तापन ही नहीं है! संसार के सुख भी जिसके लिए दुःखों के भार समान बन जाएँ, वह मुक्ति का अधिकारी ! उसे 'ज्ञानी पुरुष' मुक्ति दे देते हैं। क्योंकि ज्ञानी तो तरण तारणहार होते हैं। [१२] व्यवस्था 'व्यवस्थित' की विश्व का नियंत्रण स्वभाव से ही सहज रूप से होता रहता है। उसे 'अक्रमज्ञानी' 'व्यवस्थित शक्ति' कहते हैं। विश्व के छह सनातन तत्वों पर इस 'व्यवस्थित' शक्ति का कोई क़ाबू नहीं है, सभी तत्व स्वतंत्र हैं, कोई किसीको कुछ मानता नहीं है, कोई किसीकी सुनता नहीं है, उसमें एक चेतन तत्व, खुद परमात्मा है, फिर भी !!! सेवा के साथ समर्पणता जुड़ जाए तो सोने में सुहागा ! परन्तु सेवा का फल पुण्य मिलता है, मोक्ष नहीं। हाँ, उसमें स्वरूपज्ञान हो, कर्त्तापन नहीं हो, तो फिर वहाँ कर्म बंधन नहीं रहता है। जगत् में चलनेवाला खूनखराबा, मारामारी, काटपीट, विश्वयुद्धों के बुरे परिणामों को 'ज्ञानी पुरुष' 'व्यवस्थित' ही देखते हैं! समुद्र में बड़ी २६

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