Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation
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मोक्ष की मुहर लग गई।
धर्म का पालन नहीं करना है, धर्म के प्रति सिन्सियर रहना है। भगवान के दर्शन करते समय साथ-साथ चप्पलों के और दुकान के भी दर्शन करे, वह धर्म के प्रति सिन्सियर है, ऐसा कैसे कह सकते हैं? तमाम प्रकार के दुःखों से मुक्ति दिलवाए, वह सच्चा धर्म।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप, बस यही एक मोक्ष का मार्ग है और कोई नहीं।
मूर्त के दर्शन, अनंत जन्मों से किए। भीतर बिराजे हुए अमूर्त के एकबार ही दर्शन हो जाएँ तो अनंत जन्मों का बदला चुक जाए!
यह सब नुकसान कब पूरा होगा? और वह भी इस दिवालियावाले कलिकाल में? अब तो ज्ञानी की शरण स्वीकार करके मुक्ति ही माँग लेनी है, तभी जल्दी से हल आएगा!
_ [१५] आचरण में धर्म भगवान आचरण को महत्व नहीं देते, हेतु को महत्व देते हैं। आचरण, वह 'डिस्चार्ज' है, जब कि चार्ज तो हेतु के अनुसार होता है।
'मानवजन्म बेकार नहीं जाए' का निरंतर चिंतन किसी दिन फलेगा।
क्लेश रहित होना, वही महान धर्म है। क्लेश है वहाँ धर्म नहीं है और धर्म है वहाँ क्लेश नहीं है।
दया रखनी, शांति, समता रखनी, वे धर्मसूत्र इस काल में बेकार हो जाते हैं। जो कोटि उपायों से भी नहीं रखा जा सकता, वहाँ पर क्या हो? इसलिए 'ज्ञानी पुरुष' नई ही राह, नये ही रूप में सामान्यजन से भी साधा जा सके, वैसा मार्ग बताते हैं।
क्रोध-मान-माया-लोभ हो उसमें हर्ज नहीं है, पर फिर उनका प्रतिक्रमण करे। चोरी करे तो भी हर्ज नहीं है, पर फिर उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए, ज्ञानी की इतनी ही आज्ञा पाले, उसे तमाम धर्मों का सार
मिल जाए। ज्ञानी को राजी रखें, उसके जैसा उत्तम कोई धर्म नहीं। ज्ञानी की आज्ञा पाली जाए, वहाँ ज्ञानी राज़ी रहते हैं। अन्य किसी चीज़ से नहीं। ज्ञानी की एक ही आज्ञा ठेठ मोक्ष तक ले जानेवाली है!
ज्ञान तो खुद ही क्रिया को लानेवाला है। 'चोरी करने में मज़ा है' का ज्ञान फिट होते ही चोरी होने लगती है। ज्ञान बदले कि फिर क्रिया बदलती ही है! ज्ञान बदले बिना क्रिया लाख जन्म में भी नहीं बदलती!
अज्ञान का ज्ञान जानने में पौद्गलिक शक्तियाँ आसानी से मिल जाती है। चोरी, हिंसा, अब्रह्मचर्य में शक्तियाँ सहज रूप से खर्च हो जाती हैं। जब कि ज्ञान जानने में प्रार्थना और पुरुषार्थ चाहिए! प्रार्थना अर्थात् विशेष अर्थ की याचना। वह खुद के शुद्धात्मा के पास से या फिर ज्ञानी के पास से माँगनी चाहिए। अज्ञान दशा में गुरु, मूर्ति या इष्टदेवी की प्रार्थना होती है। हृदयशुद्धिवाले की सच्ची प्रार्थना अवश्य फलती है।
[१६] रिलेटिव धर्म : धर्म विज्ञान निष्पक्षता है, वहाँ वीतराग धर्म है। वीतराग धर्म, वह सैद्धांतिक धर्म है। इन्द्रियजन्य जो-जो है वह 'रिलेटिव' में आता है और 'रियल' है. उससे ही 'रिलेटिव' खड़ा हुआ है! 'रिलेटिव' अवस्था स्वरूप है। 'रियल' तत्व स्वरूप है।
धर्माधर्म आत्मा - मूढ़ात्मा - रिलेटिविटी ज्ञानघन आत्मा - अंतरात्मा - रियालिटी विज्ञानघन आत्मा - परमात्मा - एब्सोल्यूट।
आर्तध्यान-रौद्रध्यान जाएँ, वह धर्मसार है। जब कि मर्म का सार यानी मुक्ति! जगत् का सार विषयसुख और धर्म का सार आर्तध्यानरौद्रध्यान से विमुक्ति! और समयसार अर्थात् स्वाभाविक परिणति, स्वपरिणति उत्पन्न हुई।
धर्म 'रिलेटिव' होता है और विज्ञान 'रियल' होता है। 'विज्ञान' अविरोधाभासवाला, सैद्धांतिक और स्वयं क्रियाकारी होता है!
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