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प्रास्ताविक : १७
प्रथम श्रेणी में मुख्य रूप से सूफी कवियों की रचनाएँ आती हैं । सूफियों के अतिरिक्त अन्य भक्त कवियों ने भी इस शैली को अपनाया है । अत एव इन काव्यों की दो श्रेणियाँ हो जाती हैं
:
१. सूफी कवियों के लिखे प्रेमकाव्य
२. अन्य भक्त कवियों द्वारा लिखे गये प्रेमकाव्य
उक्त भेद को निम्न प्रकार से भी कहा गया है :
१. शुद्ध प्रेमाख्यानक काव्य : जिसमें स्त्री-पुरुष के लौकिक प्रेम का चित्रण किया हो, जैसे — छिताईवार्ता |
२. रहस्यवादी प्रेमाख्यानक काव्य : जिन काव्यों में लौकिक प्रेम के माध्यम से पारलौकिक प्रेम का निरूपण किया जाता हो। इस प्रकार के काव्यों में सूफी कवियों को रचनाएँ प्रमुख हैं ।
३. प्रेमप्रभाव-निरूपक काव्य : इसमें कथा नाममात्र को होती है, सारा बल प्रेम-निरूपण में ही दिया जाता है ।
हिन्दी के प्रेमख्यानकों का मुख्य लक्षण निर्धारित करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे संस्कृत के लक्षणों को पूर्णतः नहीं स्वीकार करते । हिन्दी प्रेमख्यानकों का अपना एक निजी और नया काव्यरूप है ।
हिन्दी प्रेमाख्यानकों की शिल्प-विधि की कठिनाइयों का जहाँ तक प्रश्न है, वे तो आज तक भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं । उसका मूलभूत कारण प्रथम तो यही है कि प्रेमाख्यानकों के मुद्रण के अभाव में उस ओर किसी Sharara दृष्टि पड़ी ही नहीं । द्वितीय यह कि किसी वस्तु से उसके शिल्प को अलग नहीं किया जा सकता। चूँकि हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य का चिर ऋणी है अथवा डा० वीरेन्द्र श्रीवास्तव की शब्दावली में, 'हिन्दी भाषा और साहित्य की विकास-शृंखला का सम्यक् परिचय बिना अपभ्रंश भाषा के अध्ययन के संभव नहीं है । अतएव उस ओर दृष्टिपात करना भी आवश्यक है । मध्यकालीन हिन्दी के प्रेमाख्यानकों का शिल्प और कथा-संघटन अपभ्रंश से बहुत प्रभावित है। अबतक इस
१. डा० हजारीप्रसाद वेदी, हिन्दी साहित्य, पृ० २७८.
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२. छिताईवार्ता, सं० - डा० माताप्रसाद गुप्त, परिचय, पृ० १२.
३. डा० वीरेन्द्र श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ० ३९.
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