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१६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक रही है । यहाँ विचारणीय यह है कि हिन्दी प्रेमाख्यानकों का मुख्य लक्षण क्या है ? यह तो सुनिश्चित ही है कि प्रेमाख्यानकों अथवा प्रेमगाथाओं का आधार कोई न कोई प्रेम-कथा, प्रेम-कहानी, प्रेम-वार्ता अथवा कोई लोकवार्ता या प्रचलित कहावत ही होगी । जहाँ तक मेरा इस विषय में अध्ययन है वहाँ तक मैं यह कह सकता हूँ कि संस्कृत कथाकाव्यों की भाँति हिन्दी प्रेमाख्यानकों को किसी एक परिभाषा के वृत्त में नहीं घेरा जा सकता। हिन्दी प्रेमाख्यान अपनी पृष्ठ-भूमि में जहाँ एक ओर भारतीय प्राचीन परम्परा को सुरक्षित रखे हुए हैं वहाँ दूसरी ओर , अभारतीय विशेषकर सूफी परम्परा के प्रभाव से अछते नहीं रह सके हैं। सुफी प्रेमाख्यानकों को एक अलग धारा रही है। इस बात का संकेत मैंने पूर्व भी किया है कि कोई भी प्रेम-कथा चाहे वह चरितकाव्य के रूप में अथवा दन्तकथा के आधार पर रचित अथवा लोकवार्ता आदि से सम्बन्धित होकर सामने आई, उसे प्रेमगाथा या प्रेमाख्यान कहने में संकोच की क्या बात है ? हाँ, यह बात अवश्य द्रष्टव्य होगी, कि उस कथा, आख्यायिका अथवा आख्यान में प्रेमकथा की प्रधानता है या नहीं। यदि प्रेमकथा की प्रधानता नहीं है तो अवश्य ही विषयान्तर होगा।
साधारणतया प्रेमाख्यानकों के सन्दर्भ में लोक-मर्यादा का प्रश्न उठता है । ऐसी स्थिति में मेरा विचार है कि कोई भी सजग कृतिकार जान-बूझ. कर लोकमर्यादा के परे की बात नहीं लिखता। यदि वह चरमोत्कर्ष को बेला में लोकमर्यादा का अतिक्रमण बरबस कर जाता है तो क्षम्य है। चूँकि 'प्रेमाख्यानकों में लोकमर्यादा का अतिक्रमण दोष नहीं गुण समझा जाता है।"
हिन्दी प्रेमाख्यानकों को अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भागों में विभक्त करके देखा जा सकता है। अथवा इसे यों भी कह सकते हैं कि उपलब्ध प्रेमाख्यानक तीन प्रकार के हैं :
१. आध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्रचार के लिए लिखे गये काव्य । २. विशुद्ध लौकिक प्रेम-काव्य । ३. अर्द्ध-ऐतिहासिक प्रेमगाथाएँ।
१. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदो, मध्यकालीन धर्मसाधना, प० २४८. २. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य, पृ० २६३.