Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ अनेकान्त / 7 पर आधारित होगी। इस मान्यता में वर्तमान में वर्तमान के प्रवचन - प्रमुख, प्रवचन - परमेष्ठी एवं वाचना - प्रमुख भी प्रेरक है। उनके मत का आधार शायद यह हो कि दिगम्बरों में तो जिनवाणी के आधार भूत द्वादशांगी आगम का विस्मृति के गर्भ में चले जाने के कारण लोप हो गया है। उसकी भाषा को शायद वे 'अर्धमागधी' मानने में कोई परेशानी अनुभव न करें। इस विस्मरण और विलोपन के तीन कारण स्पष्ट हैं- (i) आचारांग के समान वर्तमान उपलब्ध आगमों में सचेलमुक्ति की चर्चा (ii) अन्य आगमों में स्त्री-मुक्ति की चर्चाएँ, तथा कथाएँ तथा (iii) अनेक प्रकार की सहज प्रवृत्ति प्रदर्शित करने वाली पर, दिगम्बरों के मत से विकृत रूप प्रदर्शित करने वाली अनेक कथाएँ उनके अन्य कारण भी हो सकते है । अनेक विद्वानों ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि स्मृति- ड्रास की प्रक्रिया तो समय के साथ स्वभाविक है पर जिन कल्पी दिगम्बरों में इसका ह्रास स्थविर कल्पियों की तुलना में काफी तेज हुआ है । यह मत वीर निर्वाण के बाद की 683 वर्ष की दिगम्बर परम्परा के अवलोकन से सत्यापित होता है। दिगम्बरों की इस आगम-विषयक स्मृति- ह्रास की तीव्र दर और कारणों पर किसी भी विद्वान का मंथन दृष्टिगत नहीं हुआ है। इस कारण दिगम्बर परम्परा पर अनेक आरोप भी लगते रहते हैं । यह मौन आत्मर्थियों की सहज व्यक्तिवादिता का परिणाम ही माना जायगा । वस्तुत: द्वादशांगी ही आगम हैं जो वीर निर्वाण के समय गणधरों के द्वारा सूत्र-ग्रथित होकर स्मृति ग्रथित हुए थे। यह काल महावीर निर्वाण के समकक्ष (527 या 468 ई पू) माना जाता है। यदि पार्श्वनाथ के समय की द्वादशांगी को भी माना जावे (जो वीर शासन के समय भी पूर्वों के स्मृत अंशों के रूप में जीवंत मानी गई तो यह आगमकाल 777 या 718 ई. पूर्व तक भी माना जा सकता है। यह आगम अर्धमागधी प्राकृत में थे यह शास्त्रीय धारणा है। इसकी शास्त्रोल्लिखित प्रकृति भी स्पष्ट है। संभवत आज की चर्चा इस लुप्त आगम की भाषा से संबंधित नहीं है। यह चर्चा उन ग्रंथों की भाषा से संबंधित है जो दिगंबरों में वर्तमान में आगम तो नहीं, आगमतुल्य के रूप में मान्य हैं। इनको आगम या परमागम कहना किंचित् विद्वत्-विचारणीय बात हो सकती है। पौराणिक अतिशयोक्तियों के विश्लेषण के युग में बीसवीं सदी को ये अतिरंजनाऍ हमारे वर्तमान को भूत बना रही हैं। ये कह रही हैं कि हम वर्तमान जीवन को भूतकालीन जीवंतता देना चाहते हैं । ये शायद ही संभव हो । इन ग्रंथों में कसाय पाहुड, षट्खण्डागम, कुंदकुद की ग्रंथावली, भगवती आराधना मूलाचार आदि आते हैं। इनका रचनाकाल अर्थत अनादि है पर भाषात्मकत' यह 156 215 ई के आसपास आता है । यह काल महावीर से 683 वर्ष बाद ही आता है। (अनेक लोग इस काल को 683 वर्ष के अंतर्गत भी मानते हैं, पर यह श्रद्धामात्र लगता है) महावीरोत्तर सात सौ वर्षों में अर्धमागधी प्राकृत में क्या परिवर्धन- संवर्धन हुए यह विवेच्य विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस विवेचन से ही इनकी भाषा की प्रकृति निर्धारित करना संभव हो सकेगा ।

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