Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ अनेकान्त/5 भी प्राकृत भाषा का अर्थ स्वाभाविक या क्षेत्रीय जनभाषा बताया है। हरदेव बाहरी भी प्राकृत को मूल भाषा एवं अन्य भाषाओं की जननी मानते है। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र के मत के विपर्यास में, अधिकांश भाषा विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत मूलक नहीं है। यह स्वतंत्र समानांतर एवं पूर्ववर्ती भाषा है। फलतः संबंधित जनभाषा को किसी भी साहित्यिक भाषा का प्रथमस्तर माना जाता है। वाक्पतिराज, राजशेखर, यहाँ तक कि पिशल के समान पश्चिमी विद्वानों ने इन जन भाषाओं को ही प्राकृत भाषा कहा है। सामान्यतः यह माना जाता है कि महावीर और उनके उत्तरवर्ती युग में बच्चे (प्रायः 15%) स्त्रियां (प्रायः 50%) और अशिक्षित (प्राय: 20%) वृद्ध व्यक्ति (प्रायः 5%) एवं छद्मवेशी साधु प्राकृत भाषा ही बोलते थे। ___ फलत उस समय प्राय: 90% प्रतिशत से अधिक लोग प्राकृत बोलते रहे होंगे। यह तथ्य नाटकों के कथोपकथनों से पुष्ट होता है। इससे उस समय की भीषण अशिक्षितता का भी अनुमान होता है। प्राकृत भाषा का सामाजिक रूप और आगमों की भाषा : ३,३,. जब कोई भाषा साहित्यिक रूप ग्रहण करती है, तो उसके स्वरूप में परिष्करण एवं समाहरण की प्रक्रिया कुछ तेज या क्षीण होती है। जब यह एक ही सीमांत पर पहुंच जाती है, तब उसका मानकीकरण एवं व्याकरण-निबंधन होता है। इस प्रकार किसी भी जन भाषा या प्राकृत भाषा का साहित्यिक स्वरूप उसका द्वितीय स्तर कहा जाता है। प्राकृत भाषा में विशाल साहित्य है। यह विभिन्न क्षेत्रों में और युगो मे निर्मित हुआ है। इसका ऐतिहासिक एवं काल दृष्टि से अध्ययन करने वाले विद्वानों ने उस द्वितीय स्तर के विकास के तीन चरण बताए है। इनमें, तत्सम, तद्भव एवं देशी शब्दों का समाहार भी पाया जाता है। इसमें जन संपर्क, परिभ्रमण एवं दो या अधिक क्षेत्रों के सीमांत आदि कारणों से अनेक भाषाओं का प्रभाव समाहित हुआ है। इस समाहरण से ही उसमें बहुजन-बोधगम्यता आई है। इसने छन्दस भाषा को भी अतर्गर्भित किया है। इस विविध भाषिक समाहारों के कारण इसका व्याकरण बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। संस्कृत में तो इस प्रकार का विविध-भाषा-समाहार बहुत सीमित था, अत पाणिनी ने उसे 'उणादिगण' के द्वारा नियमित कर दिया। पर प्राकृत भाषा मे यह संभव नहीं था, अत प्रारंभ में न इसका व्याकरण बना और न ही उत्तरवर्ती काल में इसका कोई - उणादिगण' समकक्ष अपवाद प्रकरण ही। यह पाया गया है कि साहित्यिक भाषा के तीन चरण उसके क्रमिक विकास के निरूपक हैं । यह स्पष्ट है कि इनमें व्याकरण निबद्धता उत्तरोत्तर वर्धमान होगी अर्थात् पहिलाचरण प्रायः व्याकरणातीत ही होगा। सभी भाषा-विज्ञानी यह मानते है कि जैसे आगमों (या प्राचीन आगम तुल्य ग्रंथों) की भाषा साहित्यिक प्राकृत के विकास के प्रथम चरण (600 BC-200AD) को निरुपित करती है। वस्तुतः भाषिक-विकास के इतिहास की दृष्टि से प्राकृत भाषा प्राचीन एवं मध्यकालीन आर्यभाषा परिवार की सदस्य है। पौराणिक दृष्टि से इस युग में इसकाPage Navigation
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