Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ अनेकान्त/3 दिगम्बर आगमतुल्य ग्रन्थों की भाषा (संपादन और संशोधन की विवेचना) -डॉ0 नन्दलाल जैन, रीवां ऐसा माना जाता है कि किसी भी धर्म-तंत्र की विश्व जनीनता, लोकप्रियता एवं अनुकरणीयता के तीन आधार हैं- (i) उच्चकोटी के संस्थापक (ii) विश्वएकता के प्रतिपादक आगम, श्रुत या शास्त्र एवं (iii) तंत्र की सुसंगत श्रेष्ठता की धारणा । ये तीनों आधार एक दूसरे से क्रमशः संबंधित हैं। धर्म-संस्थापक तो अपने समय में धर्म-तंत्र का विकास करते हैं और बाद में उनके द्वारा कथित या उनके द्वारा लिखित आगमों के आधार पर ही भावी-अनुयायी पीढ़ियाँ और जन समुदाय तंत्र की प्राचीनता, उपयोगिता एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करते हैं। जैनधर्म की विश्वजनीनता के प्रतिपादन में भी ये तीनों तत्त्व कार्यकारी हैं। उसके संस्थापकों को सर्वज्ञता, वीतरागता एवं निर्दोषता की मान्यता ने उनके वचनों और भाषा में प्रामाणिकता एवं सर्वजनीनता दी है। इनकी निकटतम और किंचित सुदूरवर्ती शिष्यावली द्वारा रचित आगम उनकी ही वाणी माने जाते हैं और उनमें वेदों के समान पवित्रता एवं अपरिवर्तनीयता की धारणा कम से कम महावीर काल से तो प्रचलित ही है। ये आगम न केवल नैतिक सिद्धान्तों की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण हैं, अपितु ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। उनसे सिद्धान्तों एवं भाषा के मूलरूपों का पता चलता है। फिर विचार प्रवाह ज्ञानधारा तो निरंतर प्रवाहशील होती रहती है। ओशो) के समान कुछ विचारक तथ्यात्मकता को भ्रामक मानकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की उपेक्षाकर 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् का राग गाते हैं, पर यह कर्णप्रिय तो हो सका है, लेकिन लोकप्रिय नहीं हो पाया है। तीर्थकरों की देशना और उसकी भाषा (2, 3, 4, 5, 30) जैनो की मान्यतानुसार तीर्थकर की देशना शब्द-तरंग रूप होती है जिसे संसार के समस्त प्राणी अपनी अपनी योग्यता के अनुसार ग्रहण करते है। इसकी व्यंजकता अस्य मूलग्रंथस्य कर्तार : श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रथकर्तारः श्री गणधरदेवास्तेषा वचोऽनुसार मासाद्य श्री. ...... आचार्येण विरचितम्... . . .' के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर समाज में उक्त प्रकार की रचनाओं को भी आगम-मान्यता प्रचलित है। -सपादक

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