Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ अनेकान्त / 6 उद्भव कोशल-मगध देशीय भ. ऋषभ के समय से ओर ऐतिहासिक दृष्टि से मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति से भी पूर्ववर्ती काल से माना जा सकता है । यह पूर्व वैदिक भाषा है। और भ० पार्श्वनाथ ( 875-775 B.C.) या 815 - 715B. C. ) से पूर्ववर्ती तो मानी ही जा सकती है। इसे भ० नेमनाथ के समयकालीन मानना ऐतिहासिक दृष्टि से किंचित् विचारणीय होगा क्योंकि शास्त्रों में भ. पार्श्वनाथ और भ नेमनाथ का अंतरकाल प्राय चौरासी हजार वर्ष बताया है और अभी इतिहासज्ञ 84800 ईपू के विषय में कोई तथ्य नहीं पा सके हैं। महाभारत युद्ध को इतिहासकारों ने अभी 1400-2000 ई.पू. तक अनुमानित किया है । ( इस संबंध में अन्य मत भी है)। इस दृष्टि से भ० नेमनाथ के संबंधी श्रीकृष्ण और महाभारत के कृष्ण की भी समकालिकता नहीं बैठती। महाभारत के कृष्ण का शूरसेन तो मान्य हो सकता है, पर जैनों के नेमनाथ के युग के शूरसेन की विश्वसनीयता विवादित लगती है। फिर, इतिहास के अभाव में, शूरसेन क्षेत्र मगध का अंग था या मगध शूरसेन का यह बता पाना भी कठिन है। साथ ही क्या शूरसेन की बोली के समय मगध में कोई अपनी बोली या भाषा ही नहीं थी ? फलत' मागधी या अर्धमागधी शूरसेन क्षेत्रीय भाषा से जन्मी, यह तर्कणा सुसंगत नहीं लगती। इसलिए विभिन्न क्षेत्रीय प्राकृतों को समानान्तरत विकासशील एवं बहिनों के समान मानना तो अनापत्तिजनक है, पर उन्हें मॉ बेटी के समान मानना किंचित अतीचार लगता है। हॉ, यह मान्यता तो स्वाभाविक है कि राजनीतिक परिवर्तनों और बौद्धधर्म के उत्थान से जैनों की अर्धमागधी प्राकृत को शौरसेनी ने उत्तरकाल में प्रभावित किया हो जब मथुरा जैन केन्द्र बना हो । फिर भी यह मान्यता क्यों नहीं की जा सकती कि उसे महाराष्ट्री प्राकृत ने भी प्रभावित किया हो ? मथुरा में ही तो लगभग 360 ई में स्कंदिलाचार्य की वाचना हुई थी । जिसमें श्वेताम्बर मान्य आगम प्रतिष्ठित किये गए थे । अस्तु, सभी परिस्थितियों पर विचार करने पर महावीर कालीन प्राकृत का रूप अर्धमागधी था क्योंकि इसमें मगध के अतिरिक्त अन्य भाषागत शब्दों का भी समाहरण था । यही मूल आगमों की भाषा मानी जाती है। इस भाषा का स्वरूप निर्धारण इस समय दिगम्बर साधु और विद्वत् वर्ग मे लगभग पिछले पन्द्रह वर्षो से मनोरंजक चर्चा का विषय बना हुआ है। आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा का स्वरूप और शुद्ध शौरसेनीकरण 1978 के पूर्व डॉ एएन उपाध्ये, हीरालाल जैन, फूलचन्द्र शास्त्री, बालचन्द्र शास्त्री, जगदीशचन्द्र जैन और नेमिचन्द्र शास्त्री आदि जैन-आगम-भाषा मर्मज्ञ विद्वानो ने दिगम्बर आगमों या आगमतुल्य ग्रन्थों के भाषिक अध्ययन से यह निष्कर्ष दिया था कि इनकी भाषा एक जातीय नहीं है, इनमें अन्य जातीय भाषाएँ भी गर्भित हैं। इसलिए इस भाषा को 'अर्धमागधी कहा गया है जहाँ इस शब्द का अर्थ ' अर्ध मगधात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मक' माना गया है। इसे 'ऋषिभाषित' एवम् 'देवभाषा' भी कहा गया है। यह वेद भाषा के समान प्राचीन और पवित्र है । इसके विपर्यास में कुछ लोग इस भाषा को शौरसेनी मात्र मानते हैं। यदि इसे अर्धमागधी भी माना जाय, तो यह शौरसेनी की बेटी के समान मूलतः शौरसेनीPage Navigation
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