Book Title: Agam Suttani Satikam Part 10 Pragnapana
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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२००
प्रज्ञापनाउपाङ्गसूत्रं-१-५/-1-1३१८ य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसोगाहणएवि, नवरं नाना नत्थि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए जहा जहन्नीगाहणए, नवरंसट्ठाणे ओगहणाए चउट्ठाणवडिए । जहन्नठिइयाणं भंते! बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पजवा पनत्ता, से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ जहन्नठियाणं बेइंदिइयाणं अनंता पजवापन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नठिइएबेइंदिएजहन्नठिइयस्स बेइंदियस्सदव्वट्ठयाएतुल्लेपएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवड़ए ठितीए तुले वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसठिइएवि, नवरं दो नाना अब्भहिया, अजहन्नमणुक्कोसाठिइए जहा उक्कोसठिइए नवरं ठिईए तिट्ठाणवडिए।
जहन्नगुणकालगाणं बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणडेणं भंते! एवं वुच्चइ-जहन्नगुणकालगाणं बेइंदियाणं अनंता पजवा पन्नत्ता?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए बेइंदिए जहन्नगुणकालगस्स बेइंदियस्सदव्वट्ठयाएतुल्ले पएसट्टयाएतुल्ले ओगाहणट्ठयाएछट्ठाणवडिए ठिईएतिहाणवडिएकालवन्नपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपजवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएविएवं चेव, णवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं पंच वन्ना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणियव्वा । जहन्नाभिनिबोहियनाणीणं भंते ! बेइंदियाणं केवइया पञ्जवा पन्नत्ता!, गोयमा ! अनंता पजवा पन्नत्ता, से केणटेणंभंते! एवं वुच्चइ-जहन्नाभिनिबोहियनाणीणं बेइंदियाणं अनंता पज्जवा पन्नत्ता!, गोयमा! जहन्नाभिनिबोहियाणी बेइंदिए जहन्नाभिनिबोहियणाणिस्स बेइंदियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तिट्ठाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिएआभिनिबोहियणाणपजवेहिं तुल्ले सुयणाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए अचसणपज्जवेहिं छट्टाणवडिए।।
एवं उक्कोसाभिनिबोहियणाणीवि, अजहन्नमणुक्कोसाभिनिबोहियनाणविएवं चेव, नवरं सट्टाणे छट्ठाणवाडेए, एवं सुयनाणीवि सुयअन्नाणीवि अचक्खुदंसणीवि, नवरं जत्थ नाना तत्थ अन्नाणा नस्थि जत्थअन्नाणा तत्थनानानस्थि, जत्थदंसणंतत्थ नानाविअन्त्राणावि, एवं तेइंदियाणवि, चउरिदियाणवि एवं चेव नवरं चक्खुदंसणं अभिहियं
वृ. जघन्यावगाहनहीन्द्रियसूत्रे 'दोहिं नाणेहं दोहिं अन्नाणेहिं' इति, द्वीन्द्रियाणां हि केषाञ्चिदपर्याप्तावस्थायां सास्वादनसम्यकत्वमवाप्यते सम्यगद्दष्टेश्च ज्ञाने इति द्वे ज्ञाने लभ्येते शेषाणामज्ञाने तत उक्तं द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यांद्वाभ्यामज्ञानाभ्यामिति, उत्कृष्टावगाहनायांत्वपर्याप्तावस्थाया अभावाद् सास्वादनसम्यकत्वं नावाप्यते ततस्तत्र ज्ञाने न वक्तव्ये, तथा चाह-‘एवं उक्कोसितोगाहणाए वि नवरं नाणा नस्थित्ति, तथाऽजधन्योत्कृष्टावगाहना किलप्रथमसमयादूर्ध्व भवति इत्यपर्याप्तवस्थायामपि, तस्यः संभवात् सासदनसम्यकत्ववतां ज्ञाने अन्येषांचाज्ञाने इति ज्ञाने चाज्ञाने च वक्तव्ये, तथा चाह
___'अजहन्नमणुक्कोतोगाहणए जहाजहन्नोगाहणए' इति, तथा जघन्यस्थितिसूत्रे द्वे अज्ञाने एव वक्तव्ये न तु ज्ञाने, यतः सर्वजघन्यस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तको भवति न च लब्ध्यपर्याप्तकेषु मध्ये सास्वादनसम्यग्दृष्टिरुत्पद्ये, किं कारणमिति चेत्, उच्यते, लब्ध्यपर्याप्तको हि सर्वसङ्किल
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